गुरुवार, 28 अगस्त 2025

ताशकंद: एक शहर रहमतों का


 डॉ. मनीष कुमार मिश्रा को उज़्बेकिस्तान की स्मृतियों पर केंद्रित उनके कविता संग्रह "ताशकंद एक शहर रहमतों का" के प्रकाशन के लिए बधाई । हर कविता का जन्म किसी न किसी गहरे जीवनानुभव से जुड़ा होता है। कवि जब अपने जीवन की ठोस अनुभूतियों, संवेदनाओं और स्मृतियों को भाषा देता है, तभी वे काव्य की शक्ल ले पाती हैं। प्रस्तुत कविता–संग्रह “ताशकंद – एक शहर रहमतों का” इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह संग्रह केवल कविताओं का संचय भर नहीं है, बल्कि एक जीवंत यात्रा–वृत्तांत सा है, जहाँ अनुभव, आत्मीयता, प्रेम, स्नेह और सांस्कृतिक संवाद एकाकार होकर इन कविताओं की शक्ल में ढल गए हैं।


ताशकंद, मध्य एशिया का एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर, अनेक साम्राज्यों का साक्षी । सोवियत और उत्तर–सोवियत परिवर्तनों से गुजरे हुए इस नगर में कवि ने लगभग डेढ़ वर्ष बिताए। उस अवधि में उन्होंने न केवल ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन किया, बल्कि उज़्बेकी समाज, संस्कृति और वातावरण को आत्मसात भी किया। अब कवि के लिए ताशकंद केवल एक नगर नहीं रहा, बल्कि वह उनके लिए स्मृति, आत्मीयता, जीवन–अनुभव और रचनात्मक प्रेरणा का स्रोत बन गया है। यही कारण है कि इस संग्रह की प्रत्येक कविता में एक आत्मीय स्वर सुनाई देता है। कहीं लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति है, कहीं नवरोज़ का उल्लास; कहीं बर्फ़ की झरती परतों में प्रेम का दार्शनिक अर्थ उद्घाटित होता है तो कहीं समसा और चायखाना सभ्यताओं के मेल का प्रतीक बन जाते हैं।

Central Asia: Literary, Cultural Scenario and Hindi


 

Two days online international Conference

 International Institute of Central Asian Studies (IICAS), Samarkand, Uzbekistan

(by UNESCO Silk Road Programme )

Alfraganus University, Tashkent, Uzbekistan

and

Hindi Department, K.M.Agarwal Arts, Commerce and Science College, Kalyan (West)

Maharashtra, India

jointly organising

Two Day Online International Conference

*Central Asia: Literary, Cultural Scenario and Hindi*

(Date : *Saturday-Sunday 20-21 September, 2025)*

https://forms.gle/a1LppLVbiwF4JsbH8


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गुरुवार, 3 जुलाई 2025

दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज और अमरकांत का साहित्य (जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में )

 दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद

निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज और अमरकांत का साहित्य

(जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में )

दिनांक : 16-17 जनवरी 2026

प्रस्तावना :

           हिंदी कथा-साहित्य में यथार्थवाद की सशक्त परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कथाकारों में अमरकांत एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज की संवेदी बनावटअंतर्विरोधसंघर्ष और मूल्यगत विघटन को सघनता और ईमानदार दृष्टि से प्रस्तुत किया। उनके पात्र कोई 'विशिष्टया 'विलक्षणव्यक्ति नहींबल्कि वही सामान्य जन हैं जो भारत की सड़कोंगलियोंमोहल्लोंचाय की दुकानों और सरकारी दफ्तरों में जीते हैं — थकते हैंलड़ते हैंहारते हैं और फिर उठते हैं।

         अमरकांत की कहानियाँ— जैसे “दोपहर का भोजन”, “जिंदगी और जोंक”, “हत्यारे” आदि — भारतीय समाज के उस वर्ग की प्रतीकात्मक जीवन-गाथाएँ हैं जिन्हें न तो साहित्य में पर्याप्त स्थान मिला और न ही सामाजिक विमर्श में कोई खास आवाज। यह वर्ग आर्थिक रूप से सीमितसांस्कृतिक रूप से जूझता हुआ और नैतिकता के संकट से घिरा हुआ हैपरंतु फिर भी संवेदनाश्रम और स्वाभिमान के बल पर अपने जीवन को जीने की कोशिश करता है। अमरकांत ने इसी वर्ग के भीतर की अदृश्य वेदना और प्रतिरोध को अपनी लेखनी से उजागर किया।

इस दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का उद्देश्य है :

·         अमरकांत की साहित्यिक दृष्टि को सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में समझना ।

·         निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज की समस्याओं और चेतना का गहन विश्लेषण करना ।

·          यह जानना कि वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अमरकांत का साहित्य कितना प्रासंगिक और मार्गदर्शक है।

               आज जब भारत तेज़ी से आर्थिक वर्गों के पुनर्गठन और शहरीकरण के दौर से गुजर रहा हैतब यह अत्यंत आवश्यक है कि हम उस साहित्य को पुनर्पाठ करें जो भारतीय समाज की बुनियादी परतों को उजागर करता है — नारेबाज़ी से दूरआत्मा के निकट। इस परिसंवाद में देशभर के साहित्यकारआलोचकसमाजशास्त्रीशोधार्थी और हिंदीप्रेमी अमरकांत के साहित्य और उनके समाज दृष्टिकोण पर विचार-विमर्श करेंगे। यह न केवल अमरकांत को शताब्दी वर्ष की श्रद्धांजलि होगीबल्कि हिंदी साहित्य को सामाजिक नीतियों और मानवीय दृष्टिकोण से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास भी।

आलेख लिखने हेतु  उप विषय :

  1. अमरकांत की कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय मनोविज्ञान
  2. जिंदगी और जोंक’ और 'हत्यारेजैसे पात्रों के माध्यम से सामाजिक अन्याय की पड़ताल
  3. आर्थिक संकट और नैतिक द्वंद्व: अमरकांत के पात्रों की आंतरिक संघर्ष गाथा
  4. अमरकांत और प्रेमचंद: यथार्थवादी परंपरा का विकास
  5. नारी और निम्न मध्यवर्ग: अमरकांत की कहानियों में स्त्री संवेदना
  6. शहरीकरणबेरोजगारी और विस्थापन का चित्रण
  7. अमरकांत की दृष्टि में सांप्रदायिकता और सामाजिक तटस्थता
  8. हिंदी कथा साहित्य में 'सामान्यजनका उद्भव: अमरकांत के संदर्भ में
  9. विकास और मूल्यहीनता के बीच फंसा समाज: अमरकांत की दृष्टि से
  10. वर्तमान कहानी लेखन में अमरकांत की छाया और प्रभाव
  11. कहानी में भाषा और शैली: अमरकांत की सहजता और कथ्य की प्रामाणिकता
  12. हाशिए के लोगहाशिए की भाषा: अमरकांत और सामाजिक समरसता
  13. नवउदारवादी समय में अमरकांत का साहित्यिक प्रतिरोध
  14. पत्रकारिता से साहित्य तक: अमरकांत की वैचारिक यात्रा
  15. अमरकांत की कहानियों का दृश्यात्मक विश्लेषण: रंगमंच और फिल्म संभावनाएं
  16. “निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज और अमरकांत का साहित्य”
  17. नारी और निम्न मध्यवर्ग: अमरकांत की कहानियों में स्त्री संवेदना
  18. शहरीकरणबेरोजगारी और विस्थापन का चित्रण
  19. अमरकांत की दृष्टि में सांप्रदायिकता और सामाजिक तटस्थता
  20. हिंदी कथा साहित्य में 'सामान्यजनका उद्भव: अमरकांत के संदर्भ में
  21. विकास और मूल्यहीनता के बीच फंसा समाज: अमरकांत की दृष्टि से
  22. वर्तमान कहानी लेखन में अमरकांत की छाया और प्रभाव
  23. कहानी में भाषा और शैली: अमरकांत की सहजता और कथ्य की प्रामाणिकता
  24. हाशिए के लोगहाशिए की भाषा: अमरकांत और सामाजिक समरसता
  25. अमरकांत की कहानियाँ 
  26. अमरकांत के उपन्यास 
  27. अमरकांत का बाल साहित्य 
      आलेख  10 अक्टूबर 2025 तक manishmuntazir@gmail.com पर भेजे जा सकते हैं । 
       आलेख यूनिकोड मंगल फॉन्ट में ही भेजें । 
      आलेख की word फ़ाइल भेजें ना कि pdf .
      चुने हुए आलेखों को ISBN पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाएगा । 

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 
8090100900 
                                

अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष

 


 

 

 

 













अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

प्रभारी – हिन्दी विभाग

के एम अग्रवाल कॉलेज , कल्याण पश्चिम

महाराष्ट्र

 

 

             उत्तर प्रदेश के सबसे पूर्वी जिले बलिया में एक तहसील है - ‘रसड़ा’। इस रसड़ा तहसील के सुपरिचित गाँव ‘नगरा’ से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव और है। यह गाँव है - ‘भगमलपुर’। देखने में यह गाँव नगरा गाँव का टोला लगता है।भगमलपुर गाँव तीन टोलों में बँटा है। उत्तर दिशा की तरफ का टोला यादवों (अहीरों) का टोला है तो दक्षिण में दलितों का टोला (चमरटोली)। इन दोनों टोलों के ठीक बीच में कायस्थों के तीन परिवार थे। ये तीनों घर एक ही कायस्थ पूर्वज से संबद्ध, कालांतर में तीन टुकड़ों में विभक्त होकर वहीं रह रहे थे।

            इन्हीं कायस्थ परिवारों में से एक परिवार था सीताराम वर्मा व अनन्ती देवी का। इन्हीं के पुत्र के रूप में 1 जुलाई 1925 को अमरकांत का जन्म हुआ। अमरकांत का नाम श्रीराम रखा गया। इनके खानदान में लोग अपने नाम के साथ ‘लाल’ लगाते थे। अतः अमरकांत का भी नाम ‘श्रीराम लाल’ हो गया। बचपन में ही किसी साधू-महात्मा द्वारा अमरकांत का एक और नाम रखा गया था। वह नाम था - ‘अमरनाथ’। यह नाम अधिक प्रचलित तो ना हो सका, किंतु स्वयं श्रीराम लाल को इस नाम के प्रति आसक्ति हो गयी। इसलिए उन्होंने कुछ परिवर्तन करके अपना नाम ‘अमरकांत’ रख लिया। उनकी साहित्यिक कृतियाँ इसी नाम से प्रसिद्ध हुई।

         सन 1946 ई. में अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी की और बाद में बी.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने लगे। बी.ए. करने के बाद अमरकांत ने पढ़ाई बंद कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी। कोई सरकारी नौकरी करने के बदले उन्होंने पत्रकार बनने का निश्चय कर लिया था। उनके अंदर यह विश्वास बैठ गया था कि हिंदी सेवा पर्याय है देश सेवा का। वैसे अमरकांत के मन में राजनीति के प्रति एक तरह का निराशा का भाव भी आ गया था। यह भी एक कारण था जिसकी वजह से अमरकांत पत्रकारिता की तरफ मुडे़। अमरकांत के चाचा उन दिनों आगरा में रहते थे। उन्हीं के प्रयास से दैनिक ‘सैनिक’ में अमरकांत को नौकरी मिल गयी। इस तरह अमरकांत के शिक्षा ग्रहण करने का क्रम समाप्त हुआ और नौकरी का क्रम प्रारंभ हुआ।

        अमरकांत का रचनात्मक जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रारंभ हुआ। जिन साहित्यकारों को अब तक वे पढ़ते थे या अपने कल्पना लोक में देखते थे उन्हीं के बीच स्वयं को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी का क्रम भी प्रारंभ हो गया था। लेकिन सन 1954 में अमरकांत हृदय रोग के कारण बीमार पड़े और नौकरी छोड़कर लखनऊ चले गये। एक बार फिर निराशा ने उन्हें घेर लिया। अब उन्हें अपने जीवन से कोई उम्मीद नहीं रही। पर लिखने की आग कहीं न कहीं अंदर दबी हुई थी अतः उन्होनें लिखना प्रारंभ किया और उनका यह कार्य आज भी जारी है।

 

        अमरकांत अपने समय और उसमें घटित होने वाले हर महत्वपूर्ण परिवर्तन से जुड़े रहे। उन्होंने जो देखा, समझा और जो सोचा उसी को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियाँ एक तरह से ‘दायित्वबोध’ की कहानियाँ कही जा सकती हैं। यह ‘दायित्वबोध’ ही उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ता है। अमरकांत ने अपने जीवन और वातावरण को जोड़कर ही अपने कथाकार व्यक्तित्व की रचना की है। अमरकांत अपने समकालीन कहानीकारों से अलग होते हुए भी प्रतिभा के मामले में कहीं भी कम नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की नकल से नहीं उपजा है। उन्होंने जिन परिस्थितियों में अपना जीवन जिया उसी से उनका व्यक्तित्व बनता चला गया। और उन्होंने जीवन में जो भी किया उसी को पूरी ईमानदारी से अपने लेखन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी किया। इसलिए अमरकांत के व्यक्तित्व को निर्मित करने वाले घटक तत्वों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनका व्यक्तित्व आरंभ से लेकर अब तक एक ऊर्ध्वगामी प्रक्रिया का परिणाम है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को किसी निश्चित योजना अथवा आग्रह के आधार पर विकसित न करके जीवन के व्यावहारिक अनुभव द्वारा आकारित किया। सारांशतः उनका व्यक्तित्व अनुभव सिद्ध व्यक्ति का व्यावहारिक संगठन है। यही कारण है कि उनमें आत्मनिर्णय, आत्मविश्वास और आत्माभिमान का चरम उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।

     अमरकांत अपने ऊपर प्रेमचन्द और अन्य साहित्यकारों का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। उन दिनों अमरकांत के पास सभी साहित्य उपलब्ध नहीं होता था। जो पढ़ने को मिलता उन्हीं का प्रभाव भी पड़ना स्वाभाविक था। उन दिनों शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य उनके लिए उपलब्ध था। घर पर आने वाले ‘चलता पुस्तकालय’ के माध्यम से ही अधिकांश साहित्य उन्हें पढ़ने को मिला था। इन दोनों की ही कहानियों में रोमांटिक तत्व था जिसने अमरकांत को प्रभावित किया।आगे चलकर जब अमरकांत का परिचय प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचंद जोशी और विश्वसाहित्य से हुआ तो उनके अंदर एक दूसरे तरह की समझ विकसित हुई। रोमांस और आदर्श का प्रभाव उनके ऊपर से कम होने लगा। वैसे इस रोमांस और आदर्श से दूर होने का एक कारण अमरकांत विभाजन के दम पर मिली आज़ादी और उसके बाद हुए भीषण कत्ले आम को भी मानते हैं। अभी तक सभी का उद्देश्य एक ही था और वह था देश की आज़ादी। लेकिन पद, पैसा और प्रतिष्ठा के लालच में लोग अब विभाजन की बात करने लगे थे। इससे आदर्शो के प्रति जो एक भावात्मक जुड़ाव था उसे गहरा धक्का लगा।

            जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस पार्टी से अलग होने की बात सुनकर भी अमरकांत को आघात पहुँचा। गोर्की, मोपासा, टॉलस्टॉय, चेखव, दास्टायवस्की, रोम्यारोला, तुर्गनेव, हार्डी, डिकेन्स जैसे लेखकों के साहित्य नें अमरकांत को प्रभावित किया। बी.ए. करने के बाद अमरकांत नौकरी करने आगरा चले आये। यहाँ वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और कई साहित्यकारों से परिचित भी हुए। आगरा के बाद अमरकांत इलाहाबाद चले आये। यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। इलाहाबाद आने और यहाँ के प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने से अमरकांत के साहित्यिक संस्कार अधिक पुष्ट हुए। लेखकीय आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के लेखकों के साथ विचार विनिमय का भी उनकी रचनाशीलता पर प्रभाव पड़ा। उनकी ग्रहणशीलता का यह वैशिष्ट्या था कि लेखकों के रचनात्मक गुणों को वे आदरपूर्वक स्वीकार करते थे। यह भी लक्षणीय है कि जहाँ उन्होंने अपने समान धर्माओं से प्रभाव ग्रहण किया वहीं उन्हें प्रभावित भी किया। मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, कमलेश्वर, केदार, राजनाथ पाण्डेय, मधुरेश, मन्नू भंडारी, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान प्रकाश, सुरेन्द्र वर्मा, विजय चौहान और विश्वनाथ भटेले जैसे कई साहित्यकारों ने अगर अपना प्रभाव अमरकांत पर डाला तो वे भी अमरकांत के साहित्यिक प्रभाव से बच नहीं पाये। समय-समय पर इन सभी ने अमरकांत के साहित्य पर अपनी समीक्षात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है।

       अमरकांत के प्रकाशित  कहानी संग्रह हैं -  जिंदगी और जोक,  देश के लोग, मौत का नगर, मित्र मिलन, कुहासा,  तूफान,  कला प्रेमी, जांच और बच्चे  और प्रतिनिधि कहानियाँ । आप के प्रकाशित उपन्यासों में – सूखा पत्ता, कटीली राह के फूल, इन्हीं हथियारों से, विदा की रात, सुन्नर पांडे की पतोह, काले उजले दिन, सुखजीवी, ग्रामसेविका इत्यादि प्रमुख हैं । अमरकांत को जो प्रमुख पुरस्कार एवम् सम्मान मिले, वे इसप्रकार हैं :- सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, जन-संस्कृति सम्मान, मध्यप्रदेश का ‘अमरकांत कीर्ति’ सम्मान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का सम्मान । उनके उपन्यास इन्हीं हाथों से के लिए उन्हें 2007 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 2009 में व्यास सम्मान मिला। उन्हें वर्ष 2009 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

      सोमवार दिनांक 17 फ़रवरी, 2014  को अमरकांत का इलाहाबाद में निधन हो गया । अमरकांत हमारे समय का वह ‘किरदार’ हैं, जो पाठ्यक्रम में छपकर खत्म नहीं होता, बल्कि हर समय की दीवार पर एक चुप्पी बनकर टंगा रहता है। उनकी कहानियाँ कोई साहित्यिक कारनामा नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना की दस्तावेज़ हैं। शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करना सिर्फ अतीत का पुनरावलोकन नहीं, वर्तमान को उसकी असहज सच्चाइयों के साथ देख पाने की शक्ति अर्जित करना है।

 

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

ताशकंद में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की स्थिति

 ताशकंद में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की स्थिति


                       उज़्बेकिस्तान में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की एक समृद्ध परंपरा है। ताशकंद के लाल बहादुर शास्त्री  विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा के आधार पर हिंदी पढ़ाई जाती है जिसकी शुरूआत 1955 के आसपास हुई । पाठशाला क्रमांक 24/ मकतब 24 प्रसिद्ध लेखक दिमित्रोव के नाम से ताशकंद में शुरू हुआ । सन 1972 में इसका नाम बदलकर लाल बहादुर शास्‍त्री विद्यालय किया गया। यहाँ कक्षा 5 से ही हिन्दी का अध्यापन होता है । इस विद्यालय में लगभग 1400 विद्यार्थी हैं जिनमें से  लगभग 800 विद्यार्थी यहाँ हिन्दी सीखते हैं । सिर्फ हिन्दी पढ़ाने के लिए यहाँ वर्तमान  में  07 शिक्षक कार्यरत हैं । इस विद्यालय की वर्तमान डायरेक्टर नोसिरोवा दिलदोरा यहाँ की हिन्दी शिक्षिका भी हैं । अन्य शिक्षकों में अब्दुर्राहमनोवा निगोरा, तोजीमुरुदोवा सुरइयो, तुर्दीओहूननोबा, कुरबानोवा ओजोदा और मिर्ज़ायूरादोवा मफ़ूजा शामिल हैं । लाल बहादुर शास्त्री विद्यालय, ताशकंद संभवतः न केवल उज़्बेकिस्तान अपितु पूरे मध्य एशिया में हिंदी अध्ययन अध्यापन का सबसे बड़ा केंद्र है ।
                         इस विद्यालय के हिन्दी छात्रों को हिंदी भाषा रुचिपुर्ण तरीके से सिखाने के लिए पाठ्य सामग्री को लगातार नए स्वरूप में तैयार करने का कार्य चलता रहता  है। नवीनतम बदलाव वर्ष 2‌021 में किया गया ।  सभी कक्षाओं की (कक्षा 5 से 11 तक ) किताबों को बदलने‌ का का‌म स्कूल के‌ शिक्षकों  तथा ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीस्ज के वरिष्ठ इंडोलजिस्ट की मदद व सुझाव से पाठ्य‌ पुस्तक समिति ने ‌कि‌या। इन किताबों के प्रकाशन के लिए भी भारतीय दूतावास आर्थिक सहायता देता रहता है ।
              ताशकंद में हिन्दी अध्ययन अध्यापन से जुड़े लाल बहादुर शास्त्री स्कूल, ताशकंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज, द यूनिवर्सिटी ऑफ वर्ड इकॉनमी अँड डिप्लोमसी तथा उज़्बेकिस्तान स्टेट वर्ड लैंगवेजेज़ यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई जाती है । विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी में स्नातक, परास्नातक और PhD करने की व्यवस्था ताशकंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में है । यहां करीब 12 प्राध्यापक हिन्दी अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के हिन्दी चेयर के माध्यम से भारतीय प्राध्यापक भी यहां विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य करते रहे हैं। वर्तमान में डॉ मनीष कुमार मिश्रा यहां हिन्दी चेयर पर कार्यरत हैं। डॉ.निलूफर खोजाएवा, प्रो.उल्फतखान मुहिबोवा, डॉ.तमारा खोजाएवा, डॉ.सिराजुद्दीन नुरमातोव, डॉ.मुखलिसा शराहमेतोवा और डॉ.कमोला रहमतजानोवा जैसे उज़्बेकी हिन्दी प्राध्यापकों का हिन्दी के प्रति समर्पण महत्वपूर्ण है।
                वर्तमान में करीब 200 छात्र अकेले इसी विश्वविद्यालय में हिंदी सीख रहे हैं।  इसके अतिरिक्त द यूनिवर्सिटी ऑफ वर्ड इकॉनमी अँड डिप्लोमसी में करीब 50 तथा उज़्बेकिस्तान स्टेट वर्ड लैंगवेजेज़ यूनिवर्सिटी में भी स्नातक स्तर पर हिन्दी भाषा पढ़ाई जाती है। यहाँ भी लगभग 100 के करीब  हिन्दी के छात्र हैं जो द्वितीय या तृतीय भाषा के रूप में हिन्दी सीखते हैं । लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति केंद्र, ताशकंद में भी हिंदी अध्ययन की व्यवस्था है। वरिष्ठ हिन्दी प्राध्यापक श्रीमान बयात रहमातोव एवं श्रीमती मुहाय्यो तूरदीआहूनोवा यहां वर्तमान में कार्यरत हैं। उज़्बेकी हिन्दी शब्दकोश के निर्माण में श्रीमान बयात रहमातोव का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

सोमवार, 17 मार्च 2025

ताशकंद के इन फूलों में

 ताशकंद के इन फूलों में केवल मौसम का परिवर्तन नहीं,बल्कि मानव जीवन का दर्शन छिपा है। फूल यहाँ प्रेम, आशा, स्मृति, परिवर्तन और क्षणभंगुरता के प्रतीक हैं।उनकी बहार दिल के भीतर छिपी सूनी जमीन पर भी रंग और सुवास बिखेर जाती है। जैसे थके पथिक को किसी अनजानी जगह अपना गाँव दिख जाए — वही अपनापन, वही मिठास।फूलों की झूमती डालियाँ — जीवन के उतार-चढ़ाव की छवि,कभी तेज़ हवा में झुकतीं, तो कभी सूर्य की ओर मुख उठातीं।उनमें नश्वरता का भी बिंब है —पलभर की खिलावट, फिर मुरझाना,मानो कहती हों, "क्षणिक जीवन में ही सौंदर्य है।"

हवा में तैरती सुगंध — कोई इत्र नहीं,बल्कि बीते समय की स्मृतियाँ, जो अनायास ही मन के बंद दरवाजों को खोल देती हैं।हर फूल — एक कविता, हर पंखुड़ी — एक अधूरी प्रेम-कहानी।फूलों की इस बहार में एक सन्देश छुपा है —

रंग भले अलग हों, खुशबू एक-सी होती है,

जैसे जीवन में विभिन्नता के बावजूद,

मूल में प्रेम, शांति और सुंदरता की गूँज होती है।











ताशकंद में बहारों का आना

 बर्फ़ पिघलते ही दबे पाँव हल्की मुस्कान के साथ मौसम ए बहारा इन फूलों के साथ ताशकंद में दस्तक देने लगा है। गुलाबी ठंड और गुनगुनी धूप सुर्खियों से लबरेज़ हैं। ताशकंद की सरज़मी पर बहारों की क़दमबोशी ऐसी है मानो किसी चित्रकार ने हलके गुलाबी, हरियाले और सुनहरे रंगों की नरम तूलिका से क़ुदरत के कैनवास पर जीवन उकेर दिया हो। लंबी सर्दियों की चुप्पी को तोड़ते हुए हवाओं में मख़मली नरमी घुलने लगती है। चिनार और खुमानी के दरख़्तों पर नई कोपलें मुस्कुरा उठती हैं, और बादाम के फूलों की भीनी महक फ़िज़ाओं में घुलकर एक अल्हड़ नशा पैदा कर देती है। ये बदामशोरी किसे न दीवाना बना दें!

शहर की गलियों में चलते हुए ऐसा लगता है, जैसे हर पत्थर, हर इमारत ने सर्द रातों के थकान को छोड़, नई ऊर्जा ओढ़ ली हो। रंग-बिरंगे फूलों से सजे बाग-बगीचे, नीला आसमान, और दूर बर्फ से ढकी पहाड़ियों के पीछे से झाँकती सुनहरी धूप – सब मिलकर एक ऐसी कविता रचते हैं, जिसकी हर पंक्ति जीवन और उमंग से लबरेज़ है।ताशकंद की धरती पर जब बहार की पहली आहट सुनाई देती है, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे सोई हुई कायनात किसी मीठे स्वप्न से जाग उठी हो। हवा में एक अजीब सी ताजगी घुल जाती है । न सर्दियों की चुभन, न गर्मियों की तपिश — बस एक नर्म, सुरीली ठंडक जो दिल के भीतर तक उतर जाती है।

दरख़्तों की टहनियाँ, जो अब तक नंगेपन का बोझ ढोती थीं, एकाएक हरी चुनर ओढ़ लेती हैं। बादाम, आड़ू और चेरी के फूलों की सफेद और गुलाबी पंखुड़ियाँ हवाओं में तितली बनकर उड़ती हैं। जैसे किसी शायर ने क़लम से हवाओं पर इत्र छिड़क दिया हो।ताशकंद की पथरीली गलियाँ, जिन पर सर्दियों की उदासी जमी थी, अब रंग-बिरंगे फूलों के गलीचों से सजी दिखाई पड़ती हैं।और आसमान? वह तो जैसे खुद अपनी नीली चादर को और भी साफ़ करके ताशकंद पर फैलाता है। दूर की पर्वत श्रृंखलाएँ अपने हिममुकुट के साथ बहार का अभिवादन करती हैं। हर कोना, हर दरख़्त, हर झरोखा एक गीत गाने लगता है — प्रेम का, पुनर्जन्म का, जीवन के पुनः अंकुरित होने का।

बहार सिर्फ मौसम का नाम नहीं, ताशकंद के लिए यह एक नवजीवन का संदेश है – उम्मीदों का, प्रेम का, और नूतन सृजन का प्रतीक। जैसे कोई पुरानी याद नए रंगों में लौट आई हो।बहार ताशकंद में सिर्फ ऋतु नहीं, एक उत्सव है — उम्मीदों का, सौंदर्य का, और मानव आत्मा के पुनरुत्थान का प्रतीक। जैसे प्रकृति खुद अपने गुलदस्ते में रंग भरकर, मानव हृदय को सौंप रही हो।

महान उज़्बेकी कवि अली शेर नवाई की प्रसिद्ध कृति "बहारिस्तान" का यह अंश अकस्मात याद आ गया --


بہار ایلدی، چمن رنگ و بوغا تولدی،

هر شاخه‌دا ینی غنچه تبسم قیلدی.

بلبل نغمه‌سی‌دن گلشن معطر بولدی،

طبیعت‌نین هر رنگی روشن بولدی.


(लिप्यंतरण)

Bahar eldi, chaman rang u bo'ğa toldi,

Har shaxada yangi g'unchha tabassum qildi.

Bulbul nag'masi'dan gulshan muattar bo'ldi,

Tabiatning har rangi ro'shan bo'ldi.

(हिंदी अनुवाद)

बहार आई, चमन रंग और खुशबू से भर गया,

हर शाख पर नई कली मुस्कुराई।

बुलबुल के नग़मे से गुलशन महक उठा,

प्रकृति का हर रंग रोशन हो गया।

रविवार, 2 मार्च 2025

उज़्बेकिस्तान में भारतीय भाषाविदों का सम्मान



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भारतीय ज्ञान परंपरा और उज़्बेकिस्तान: संबंधों का ताना-बाना ।

 

भारतीय ज्ञान परंपरा अपनी प्राचीनता और व्यापकता में अद्वितीय है। यह केवल धार्मिक और आध्यात्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक, साहित्यिक और तकनीकी रूप से भी समृद्ध रही है। आज के वैश्वीकृत समाज में, भारतीय ज्ञान परंपरा की पुनः खोज और प्रचार-प्रसार आवश्यक है ताकि यह भविष्य की पीढ़ियों को प्रेरित करती रहे। भारतीय ज्ञान परंपरा हजारों वर्षों से मानव सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आई है। इसकी जड़ें वेदों, उपनिषदों, पुराणों, आयुर्वेद, गणित, खगोल विज्ञान, साहित्य और दर्शन में गहराई से जुड़ी हैं। यह परंपरा न केवल भारतीय समाज को दिशा देने में सहायक रही है, बल्कि पूरे विश्व पर इसका प्रभाव पड़ा है।  दूसरी ओर, उज़्बेकिस्तान ऐतिहासिक रूप से भारत के साथ गहरे सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंधों से जुड़ा रहा है। सिल्क रूट (रेशम मार्ग) के माध्यम से हुए व्यापार, बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार और इस्लामी ज्ञान परंपरा के विकास में इन दोनों सभ्यताओं का योगदान अविस्मरणीय है।

               भारतीय ज्ञान परंपरा चार वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद - से जुड़ी है। इसके अलावा, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद, पुराण, महाकाव्य (रामायण और महाभारत) और अन्य ग्रंथों में विज्ञान, गणित इत्यादि विषयों से संबन्धित ग्रंथ आते हैं । ऋग्वेद विश्व की सबसे प्राचीन ज्ञात साहित्यिक रचना है, जिसमें ऋचाओं के माध्यम से ब्रह्मांड, देवताओं और यज्ञ पर चर्चा की गई है।ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ संबंधी विस्तार मिलता है, जबकि उपनिषदों में अद्वैतवाद और आत्मा-परमात्मा के गूढ़ तत्वों पर विचार किया गया है। इसी तरह यजुर्वेद में यज्ञों की विधियाँ वर्णित हैं। सामवेद में संगीत और छंद पर विशेष ध्यान दिया गया है। अथर्ववेद में चिकित्सा, तंत्र और जादू-टोने संबंधी ज्ञान मिलता है।, खगोलशास्त्र, चिकित्सा और दर्शन का विस्तृत उल्लेख मिलता है। भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य ने शून्य की खोज, दशमलव प्रणाली, बीजगणित और त्रिकोणमिति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सुश्रुत और चरक संहिता में चिकित्सा और शल्य चिकित्सा के विस्तृत वर्णन मिलते हैं। सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत जैसे भारतीय दर्शन शास्त्रों ने तर्क और ज्ञान परंपरा को समृद्ध किया। वराहमिहिर और आर्यभट्ट ने खगोलीय गणनाओं में योगदान दिया, जिसका प्रभाव मध्य एशिया और इस्लामी विज्ञान पर भी पड़ा।

                रामायण  और महाभारत न केवल साहित्यिक उत्कृष्टता के उदाहरण हैं, बल्कि इनमें धर्म, राजनीति, नीति और योग जैसे विषयों की विवेचना भी की गई है। पुराणों में सृष्टि की उत्पत्ति, देवी-देवताओं, राजवंशों और नैतिकता पर प्रकाश डाला गया है। जैन और बौद्ध धर्म का उदय हुआ  जिससे भारतीय दर्शन में महत्वपूर्ण बदलाव आए। महावीर और बुद्ध ने तर्क, अहिंसा और ज्ञान के नए आयाम स्थापित किए। गणित और खगोलशास्त्र के क्षेत्र में आर्यभट्ट (5वीं शताब्दी) ने "आर्यभटीयम्" ग्रंथ लिखा और शून्य की अवधारणा प्रस्तुत की। ब्रह्मगुप्त (7वीं शताब्दी) ने बीजगणित पर कार्य किया और गुरुत्वाकर्षण की प्रारंभिक अवधारणा दी। वराहमिहिर (6वीं शताब्दी) ने "पंचसिद्धांतिका" में खगोलीय गणनाओं का वर्णन किया। चिकित्सा और आयुर्वेद के क्षेत्र में आचार्य चरक द्वारा रचित चरक संहिता यह ग्रंथ आयुर्वेद का आधार है। सुश्रुत संहिता के माध्यम से आचार्य सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा पर महत्वपूर्ण योगदान दिया। भाषा और व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनि (4वीं शताब्दी ईसा पूर्व): ने "अष्टाध्यायी" की रचना की ।  उनकी "अष्टाध्यायी" संस्कृत व्याकरण का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसी तरह  पतंजलि ने  योग और व्याकरण दोनों क्षेत्रों में योगदान दिया है।

                    मध्यकालीन भारत और ज्ञान परंपरा (1200 - 1800 ईसवी ) की बात करें तो  इस काल में भारतीय ज्ञान परंपरा पर इस्लामी प्रभाव देखने को मिला, साथ ही भक्ति और सूफी आंदोलनों ने आध्यात्मिकता को नया रूप दिया। तर्क और दर्शन के क्षेत्र में आदि शंकराचार्य (8वीं शताब्दी) ने अद्वैत वेदांत को पुनः स्थापित किया। रामानुजाचार्य और मध्वाचार्य ने विशिष्टाद्वैत और द्वैत दर्शन की स्थापना की। विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भास्कराचार्य (12वीं शताब्दी) ने गणित और खगोलशास्त्र के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस समय अरबी, फारसी और भारतीय ज्ञान परस्पर एक दूसरे से प्रभावित हुए, जिससे विज्ञान और चिकित्सा में प्रगति हुई। साहित्य और कला के क्षेत्र में भक्ति और सूफी संतों ने भक्तिमार्ग को लोकप्रिय बनाया। तुलसीदास, कबीर, मीराबाई, सूरदास जैसे कवियों ने भक्ति साहित्य को समृद्ध किया। फारसी भाषा में अनेक ग्रंथ लिखे गए, जिनमें अल-बेरूनी की "तहकीक माली-ल-हिंद" प्रमुख है।

                    आधुनिक काल और पुनर्जागरण (1800 ईसवी - वर्तमान) के संदर्भ में देखें तो ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय ज्ञान परंपरा को पश्चिमी विज्ञान और तकनीक से मुकाबला करना पड़ा, लेकिन इस दौरान पुनर्जागरण की भी शुरुआत हुई । शिक्षा और समाज सुधार के लिए राजा राममोहन राय ने भारतीय समाज में सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले और महात्मा गांधी ने भारतीय परंपरा को आधुनिक दृष्टिकोण से जोड़ने का प्रयास किया। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सी.वी. रमन, जगदीश चंद्र बोस, होमी भाभा और एस. रामानुजन जैसे वैज्ञानिकों ने आधुनिक विज्ञान में योगदान दिया। योग और आयुर्वेद को पुनः वैश्विक पहचान मिली। आईटी और प्रौद्योगिकी में भारत विश्व स्तर पर अग्रणी बन रहा है। साहित्य, संगीत और कला में भारतीय परंपरा का प्रभाव आज भी बना हुआ है।

                     भारत और उज़्बेकिस्तान दोनों ही प्राचीन सभ्यताओं के केंद्र रहे हैं। इनके बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यावसायिक संबंध सदियों से चले आ रहे हैं। भले ही ये दोनों देश भौगोलिक रूप से अलग-अलग हैं, फिर भी इनकी संस्कृति में अनेक समानताएँ देखी जा सकती हैं। भारत और उज़्बेकिस्तान के बीच सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, और व्यापारिक संबंध हजारों वर्षों पुराने हैं। प्राचीन काल से ही दोनों देशों के बीच विचारों, धार्मिक परंपराओं, कला, साहित्य, और वाणिज्य का गहरा आदान-प्रदान हुआ है। विशेष रूप से सिल्क रूट (रेशम मार्ग) के माध्यम से इन दोनों सभ्यताओं का संबंध गहरा रहा है।  उज़्बेकिस्तान मध्य एशिया का एक प्रमुख देश है, जो प्राचीन काल से भारत के साथ व्यापार, संस्कृति और शिक्षा के माध्यम से जुड़ा रहा है। बुखारा, समरकंद और ताशकंद जैसे शहर ऐतिहासिक रूप से शिक्षा और संस्कृति के केंद्र रहे हैं।रेशम मार्ग के माध्यम से भारत और उज़्बेकिस्तान के बीच व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुआ।

 

 

  भारतीय वस्त्र, मसाले और औषधियाँ उज़्बेकिस्तान पहुँचती थीं, जबकि वहाँ से ऊनी कपड़े, घोड़े और खनिज भारत आते थे। सम्राट अशोक के काल में भारतीय बौद्ध भिक्षु मध्य एशिया, विशेष रूप से उज़्बेकिस्तान, पहुँचे और वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार किया। टेरमेज और समरकंद में बौद्ध विहारों के अवशेष पाए गए हैं। उज़्बेकिस्तान के इस्लामी विद्वान अल-बेरूनी ने भारत में अध्ययन किया और "तहकीक माली-ल-हिंद" नामक ग्रंथ लिखा, जो भारतीय ज्ञान परंपरा का विस्तृत वर्णन करता है। उज़्बेक विद्वान अल-बेरूनी ने 11वीं शताब्दी में भारत की यात्रा की और संस्कृत भाषा भी सीखी। ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी जैसे सूफी संत भारतीय सूफी विचारधारा से प्रभावित थे। भारतीय ज्ञान परंपरा और उज़्बेकिस्तान में वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है –

 

          चिकित्सा और आयुर्वेद

                      भारतीय चिकित्सा प्रणाली का प्रभाव उज़्बेक चिकित्सा पर देखा गया। विशेष रूप से यूनानी चिकित्सा प्रणाली में चरक संहिता और सुश्रुत संहिता का उपयोग हुआ। भारत से आयुर्वेदिक चिकित्सक और औषधियाँ मध्य एशिया तक पहुँचीं। उज्बेकिस्तान के चिकित्सा शास्त्रियों ने यूनानी और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का अध्ययन किया। उज्बेक चिकित्सा प्रणाली में हर्बल औषधियों का प्रयोग भारतीय आयुर्वेद से प्रेरित था।  इब्न सीना (980-1037), जिन्हें पश्चिमी दुनिया में अविसेना (Avicenna) के नाम से जाना जाता है, एक महान फारसी चिकित्सक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और लेखक थे। उनका जन्म वर्तमान उज्बेकिस्तान के बुखारा क्षेत्र में हुआ था, जो उस समय सामानी साम्राज्य का हिस्सा था। इब्न सीना की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक "क़ानून फ़ी अल-तिब" (Canon of Medicine) है, जिसे यूरोप और इस्लामी दुनिया में सदियों तक चिकित्सा का मानक ग्रंथ माना गया। इब्न सीना (980-1037) का भारतीय ज्ञान परंपरा से गहरा संबंध था। उन्होंने चिकित्सा, दर्शन, गणित और खगोल विज्ञान जैसे क्षेत्रों में भारतीय विचारों से प्रेरणा ली और अपने ग्रंथों में भारतीय विद्वानों के योगदान को स्वीकार किया। इब्न सीना ने अपनी प्रसिद्ध चिकित्सा पुस्तक "अल-क़ानून फ़ी अल-तिब" (Canon of Medicine) में आयुर्वेद और भारतीय चिकित्सा पद्धति से प्रभावित सिद्धांतों को शामिल किया। आयुर्वेद के चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे ग्रंथों में दिए गए सिद्धांतों का प्रभाव उनके चिकित्सा दृष्टिकोण में देखा जा सकता है। इब्न सीना का कार्य भारतीय, यूनानी और इस्लामी ज्ञान परंपराओं का समन्वय था। उनकी रचनाओं में भारतीय आयुर्वेद, गणित, खगोल विज्ञान और दर्शन के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। उनके ज्ञान का प्रभाव भारतीय मुस्लिम चिकित्सा परंपरा (यूनानी चिकित्सा) पर भी पड़ा, जो आज तक उपयोग में है।

 

                      हकीम अली गिलानी जैसे उज्बेक चिकित्सकों ने भारतीय चिकित्सा प्रणाली को समृद्ध किया। हकीम अली गिलानी ने भारत में यूनानी चिकित्सा प्रणाली को मजबूत करने में मदद की, जो ग्रीक, फारसी और भारतीय चिकित्सा परंपराओं का मिश्रण था। उन्होंने आयुर्वेदिक ग्रंथों का अध्ययन किया और कई भारतीय औषधीय पौधों को यूनानी चिकित्सा में शामिल किया। उन्होंने भारतीय औषधियों और चिकित्सा पद्धतियों के बारे में लिखित दस्तावेज तैयार किए, जिससे यूनानी चिकित्सा का भारत में और अधिक विकास हुआ। भारतीय योग, तंत्र और आयुर्वेदिक दर्शन से प्रभावित होकर उन्होंने स्वास्थ्य और चिकित्सा को समग्र दृष्टिकोण से देखा। हकीम अली गिलानी का भारतीय ज्ञान परंपरा से गहरा संबंध था। उन्होंने आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा का समन्वय कर भारतीय चिकित्सा विज्ञान को समृद्ध किया। उनके कार्यों ने न केवल भारत में बल्कि पूरे इस्लामी जगत में चिकित्सा विज्ञान के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी विरासत भारतीय-यूनानी चिकित्सा प्रणाली में आज भी देखी जा सकती है।

 

          गणित और खगोलशास्त्र

                अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख्वारिज़्मी (780-850 ई.) एक महान गणितज्ञ, खगोलशास्त्री और भूगोलवेत्ता थे। उन्हें "बीजगणित का जनक" कहा जाता है और आधुनिक गणित में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका जन्म उज़्बेकिस्तान के ख्वारज़्म (आज का ख़ीवा) में हुआ था, और इसी कारण उनका नाम "अल-ख्वारिज़्मी" पड़ा। उज़्बेकिस्तान के प्रसिद्ध गणितज्ञ ख्वारिज़्मी ने भारतीय गणित के आधार पर बीजगणित को विकसित किया। दशमलव प्रणाली और शून्य की अवधारणा भारत से मध्य एशिया और फिर यूरोप पहुँची।उज़्बेकिस्तान के विद्वान ख्वारिज़्मी ने भारतीय गणित के प्रभाव को स्वीकार किया और बीजगणित की नींव रखी। ख्वारिज़्मी ने भारतीय गणित का अध्ययन किया और भारतीय अंकों (0-9) को इस्लामी गणित में शामिल किया। उन्होंने हिंदू-अरबी संख्या पद्धति को लोकप्रिय बनाया, जिससे आधुनिक गणित की नींव पड़ी।  उनकी पुस्तकों ने भारतीय गणित को अरबों और फिर यूरोप तक पहुँचाने में मदद की । उनके कार्यों ने भारत, अरब और यूरोप के गणित और विज्ञान को जोड़ने का कार्य किया। आज भी उनका योगदान आधुनिक कंप्यूटर विज्ञान, गणित और खगोलशास्त्र में दिखाई देता है।


                        











                                    (चित्र स्रोत - https://learnnooraniqaida.com)  

         


 अबू रेहान अल-बरूनी (973-1048 ई.) का जन्म वर्तमान उज़्बेकिस्तान के ख्वारज़्म क्षेत्र में हुआ था। उन्हें मध्यकालीन इस्लामी जगत के सबसे बड़े बहुशास्त्रीय (polymath) विद्वानों में से एक माना जाता है। अल-बरूनी 1017 ई. में महमूद ग़ज़नवी के साथ भारत आए। उन्होंने भारत के धर्म, दर्शन, खगोलशास्त्र, गणित, चिकित्सा और संस्कृति का गहन अध्ययन किया। उन्होंने संस्कृत भाषा सीखी और हिंदू ग्रंथों का अध्ययन किया । अल-बरूनी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "किताब-उल-हिंद" (तहक़ीक़ माली अल-हिंद) लिखी, जिसमें उन्होंने भारतीय ज्ञान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन किया। इसमें उन्होंने भारत के सामाजिक जीवन, धार्मिक आस्थाओं, रीति-रिवाजों, विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र, तथा चिकित्सा प्रणाली पर प्रकाश डाला। अल-बरूनी ने भारतीय गणितज्ञों के कार्यों का अध्ययन किया और शून्य, दशमलव प्रणाली, तथा त्रिकोणमिति के भारतीय सिद्धांतों को समझा। उन्होंने आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के कार्यों से प्रभावित होकर खगोलशास्त्र और ज्यामिति पर कई ग्रंथ लिखे। उन्होंने वेदांत, सांख्य, योग और बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। उनके अनुसार, भारतीय दर्शनों में गहरी वैज्ञानिक और तर्कसंगत सोच निहित थी। अल-बरूनी के कार्यों ने यूरोपीय पुनर्जागरण और इस्लामी विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी पुस्तकें आज भी भारत और मध्य एशिया के सांस्कृतिक संबंधों के लिए एक मूल्यवान स्रोत हैं।













   (चित्र स्रोत -https://iranpress.com/al-biruni-what-iran-is-known-for )   


                   मीरज़ा उलूग बेग (1394-1449) उज़्बेकिस्तान के समरकंद क्षेत्र से थे और वे एक महान खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ थे। वे तैमूरी वंश के शासक भी थे। उन्होंने भारतीय खगोलशास्त्र से प्रभावित होकर समरकंद में एक वेधशाला स्थापित की, जिसे "उलूग बेग वेधशाला" कहा जाता है। उनके द्वारा तैयार की गई "उलूग बेग ज़ीज़" (Ulugh Beg Zij) नामक खगोलीय सारणी भारतीय खगोलशास्त्र के सिद्धांतों से प्रेरित थी। उन्होंने ग्रहों की गति और तारों की स्थिति की सटीक गणना की । उनकी गणना आधुनिक खगोलशास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण आधार बनी। उन्होंने भारतीय पंचांग प्रणाली का अध्ययन कर उसे इस्लामी और यूरोपीय खगोलशास्त्र से जोड़ा। उलूग बेग ने अपने वेधशाला में भारतीय गणित और खगोलशास्त्र का गहन अध्ययन किया। उन्होंने भारतीय पद्धतियों को अपने शोध में अपनाया और उन्हें मध्य एशिया में प्रचारित किया। उनके कार्यों का प्रभाव बाद में यूरोपीय वैज्ञानिकों जैसे टाइको ब्राहे और केपलर पर भी पड़ा।

 

वास्तुकला और कला

                              भारत और उज़्बेकिस्तान की वास्तुकला में अद्भुत समानता पाई जाती है। उज़्बेकिस्तान के समरकंद, बुखारा और खिवा में स्थित नीले रंग की टाइलों से सजी मस्जिदें और मकबरों की वास्तुकला का प्रभाव भारत की मुगलकालीन इमारतों जैसे ताजमहल, फतेहपुर सीकरी और दिल्ली की जामा मस्जिद पर देखा जा सकता है। दोनों देशों में इस्लामिक और पारंपरिक वास्तुशैली का मिश्रण देखने को मिलता है।मुगल वंश, जिसकी जड़ें तैमूर और उज़्बेकिस्तान के समरकंद से जुड़ी थीं, ने भारत में स्थापत्य कला को नया रूप दिया। तैमूर की स्थापत्य शैली का प्रभाव भारत में मुगल वास्तुकला पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।मुगलकाल में समरकंद और बुखारा से कलाकार, वास्तुकार और विद्वान भारत आए और दिल्ली, आगरा, और लाहौर में स्थापत्य कला को नई ऊँचाइयाँ दीं।मुगल लघु चित्रकला शैली पर उज़्बेक कला का प्रभाव देखा गया है। विशेष रूप से बाबरनामा और अकबरनामा में मध्य एशियाई चित्रकला का प्रभाव परिलक्षित होता है।भारतीय और उज़्बेक संगीत में भी कई समानताएँ हैं।

               भारतीय शास्त्रीय संगीत में जहां राग-रागिनियों का विशेष महत्व है, वहीं उज़्बेक लोक संगीत में भी पारंपरिक धुनों और सुरों का प्रयोग किया जाता है। उज़्बेकिस्तान में "शाश्मक़ाम" नामक शास्त्रीय संगीत शैली प्रसिद्ध है, जो भारतीय संगीत के राग प्रणाली से काफी मिलती-जुलती है। "शाश्मक़ाम" फ़ारसी और उज़्बेक भाषा के दो शब्दों "शाश" (छह) और "मक़ाम" (संगीत राग प्रणाली) से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है "छह मक़ाम"। यह छह मुख्य मक़ामों की प्रणाली पर आधारित है । शाश्मक़ाम में "मक़ाम" (maqam) प्रणाली होती है, जो भारतीय संगीत की "राग" (raga) प्रणाली से मिलती-जुलती है। मक़ाम और राग, दोनों में विशिष्ट स्वरों (नोट्स) और लयबद्धता के साथ रचनाएँ तैयार की जाती हैं। शाश्मक़ाम और भारतीय ध्रुपद शैली में "आलाप" जैसी विस्तारित गायकी का महत्व है। भारतीय संगीत में "ताल" (जैसे त्रिताल, झपताल, एकताल) होती हैं, जबकि शाश्मक़ाम में भी विशिष्ट लयबद्ध संरचनाएँ होती हैं, जिन्हें "उसूली" कहा जाता है। शाश्मक़ाम और भारतीय शास्त्रीय संगीत में कई मूलभूत समानताएँ हैं, विशेष रूप से राग और मक़ाम प्रणाली, लय संरचना, और सूफ़ी एवं भक्ति परंपराओं में। ऐतिहासिक रूप से दोनों संगीत शैलियाँ एक-दूसरे से प्रभावित हुई हैं और इनमें अद्भुत सांस्कृतिक संगम देखा जा सकता है। भारतीय कथक नृत्य और उज़्बेकिस्तान के पारंपरिक नृत्य जैसे "लज़्गी" में भी काफी समानता देखी जा सकती है। दोनों नृत्य शैलियों में हाथों की भाव-भंगिमा और पैरों की गति का विशेष महत्व होता है।वहाँ भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जहाँ उज़्बेक कलाकार भारतीय कला रूपों को प्रस्तुत करते हैं।

 

·         साहित्य और भाषा

 

उज़्बेकिस्तान का साहित्य, विशेष रूप से फारसी, चगताई और उज़्बेक भाषाओं में लिखित ग्रंथ, भारतीय साहित्य और दर्शन से प्रेरित रहा है। बौद्ध धर्म की शिक्षाओं ने उज़्बेकिस्तान के साहित्य और भाषा पर गहरा प्रभाव डाला। समरकंद और बुखारा जैसे शहरों में बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया गया और कई बौद्ध मठ स्थापित किए गए। भारतीय और उज़्बेक साहित्य के मेलजोल का एक और उदाहरण अमीर खुसरो (1253-1325 ई.) हैं। वे मूल रूप से तुर्क-मंगोल वंश से थे, लेकिन भारत में जन्मे और पले-बढ़े। उन्होंने फारसी, हिंदवी/हिन्दी (ब्रज भाषा), साहित्य को एक नई ऊंचाई दी। उनकी रचनाओं में भारतीय संगीत, दर्शन और भक्ति तत्वों की झलक मिलती है।

                ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी (1318-1389) मध्य एशिया के सूफी संत थे, जिनका प्रभाव न केवल उज़्बेकिस्तान बल्कि भारत और समूची इस्लामी दुनिया में देखने को मिलता है। वे नक्शबंदी सूफी सिलसिले के संस्थापक माने जाते हैं, जो सरलता, ध्यान और आत्मसंयम पर विशेष बल देता है। भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ उनका संबंध आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक स्तर पर गहराई से जुड़ा हुआ है। नक्शबंदी सिलसिला भारतीय सूफी परंपरा पर गहरा प्रभाव डालता है। भारत में पहले से ही योग, ध्यान और भक्ति परंपराएँ प्रचलित थीं, और नक्शबंदी परंपरा की शिक्षाएँ इनमें कई समानताएँ रखती थीं। भारतीय संतों, विशेष रूप से भक्ति आंदोलन के संतों और सूफी संतों के विचारों में मेल देखा जा सकता है। ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी की शिक्षाएँ चुप्पी और आंतरिक ध्यान (ज़िक्र-ए-ख़फ़ी) पर केंद्रित थीं, जो भारतीय योग और ध्यान पद्धतियों से मिलती-जुलती हैं। वे बाहरी दिखावे से अधिक आंतरिक शुद्धता पर बल देते थे, जो भारतीय संत परंपरा में आत्म-अनुसंधान और ध्यान की प्रवृत्ति से मेल खाता है।

                 ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी के विचारों को आगे बढ़ाने वाले संतों में ख्वाजा उबैदुल्लाह आहरारी और ख्वाजा बाक़ी बिल्लाह प्रमुख थे। ख्वाजा बाक़ी बिल्लाह ने भारत में नक्शबंदी परंपरा को मजबूत किया, और उनके शिष्य शेख अहमद सरहिंदी ने इस परंपरा को और आगे बढ़ाया। शेख अहमद सरहिंदी (1564-1624), जिन्हें मुजद्दिद-अल्फ-ए-सानी कहा जाता है, ने भारतीय इस्लामी समाज और सूफी परंपरा पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने आध्यात्मिक अनुशासन को बढ़ावा दिया और इस्लामी रहस्यवाद को एक नई दिशा दी। ख्वाजा बहाउद्दीन नक्शबंदी की शिक्षाएँ भारतीय ज्ञान परंपरा के कई पहलुओं से मेल खाती हैं। उनकी परंपरा ने भारत में सूफी आंदोलन को समृद्ध किया और भक्ति आंदोलन के साथ आध्यात्मिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया। नक्शबंदी परंपरा और भारतीय योग, ध्यान एवं भक्ति परंपरा के बीच गहरे संबंध हैं, जो यह दर्शाते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप ने सदियों से विभिन्न ज्ञान परंपराओं का आदान-प्रदान और समन्वय किया है।

                                   मुगल दरबार में फारसी भाषा का व्यापक उपयोग होता था, जो उज़्बेकिस्तान की साहित्यिक परंपरा से जुड़ी थी। अमीर खुसरो और अबुल फजल जैसे विद्वानों ने इस सांस्कृतिक सेतु को और मजबूत किया।उज़्बेक और हिंदी भाषाओं में फ़ारसी और अरबी भाषा का प्रभाव देखा जा सकता है। संस्कृत, हिंदी और उर्दू में कई ऐसे शब्द हैं जो उज़्बेक भाषा में भी प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण के लिए, 'बाज़ार', 'किताब', 'नवरोज़' जैसे शब्द दोनों संस्कृतियों में प्रचलित हैं। उज़्बेकी और हिंदी भाषाओं के बीच ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और भाषाई संबंधों के कारण कई शब्द समान या मिलते-जुलते हैं। उज़्बेकी और हिंदी में कई शब्द फ़ारसी, अरबी और तुर्की मूल के होने के कारण एक जैसे हैं। ये भाषाएँ ऐतिहासिक रूप से आपस में जुड़ी रही हैं, विशेष रूप से व्यापार, सूफी परंपरा, और मुगलकालीन साहित्य के माध्यम से। इन समान शब्दों से पता चलता है कि दोनों भाषाओं का संपर्क और आपसी प्रभाव लंबे समय से चला आ रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि दोनों भाषाएँ फ़ारसी, अरबी और तुर्की भाषाओं से प्रभावित रही हैं। यहाँ कुछ उज़्बेकी और हिंदी में समान अर्थ वाले शब्दों की सूची दी गई है:

                                       

क्रमांक

उज़्बेकी शब्द

       हिंदी / उर्दू में प्रयुक्त  शब्द                     

1

shakar

शक्कर / चीनी

2

bozor

बाज़ार / हाट

3

kitob

किताब / ग्रंथ

4

vaqt

समय

5

dunyo

दुनियाँ / विश्व

6

shahar

शहर / नगर

7

ustoz

उस्ताद / शिक्षक

8

mehnat

मेहनत / परिश्रम

9

inson

इंसान / मानव

10

do‘st

दोस्त / मित्र

11

siyosat

सियासत / राजनीति

12

qonun

 क़ानून / विधि

13

qaror

फैसला / निर्णय

14

Osmon

आसमान / आकाश

15

daryo

दरिया / नदी

16

hisob

हिसाब / गणना

17

dushman

दुश्मन / शत्रु

18

chorraha

चौराहा

19

mahalla

मोहल्ला

20

somsa

समोसा

 

 

                       उज़्बेकिस्तान के विश्वविद्यालयों में भारतीय दर्शन और साहित्य के अध्ययन के लिए विशेष केंद्र स्थापित किए गए हैं। आज भारत और उज़्बेकिस्तान शिक्षा, व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सक्रिय भागीदार हैं। दोनों देशों के विश्वविद्यालय भारतीय दर्शन, योग और आयुर्वेद के अध्ययन को बढ़ावा दे रहे हैं। साथ ही, उज़्बेकिस्तान में हिंदी और संस्कृत अध्ययन भी लोकप्रिय हो रहा है।ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी में हिंदी भाषा और भारतीय अध्ययन विभाग खोला गया है। भारतीय दूतावास हिंदी कक्षाएं आयोजित करता है।उज़्बेक छात्रों के लिए भारतीय सरकार ICCR (Indian Council for Cultural Relations) के माध्यम से छात्रवृत्ति प्रदान करती है।  भारत और उज़्बेकिस्तान फार्मास्यूटिकल्स, सूचना प्रौद्योगिकी और कपड़ा उद्योग में सहयोग कर रहे हैं। भारत और उज़्बेकिस्तान रक्षा, आतंकवाद-निरोध और ऊर्जा सुरक्षा के क्षेत्र में एक-दूसरे के सहयोगी हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा और उज़्बेकिस्तान के संबंध हजारों वर्षों से जारी हैं। वेदों, दर्शन, गणित, आयुर्वेद और कला के क्षेत्र में भारत ने उज़्बेकिस्तान पर गहरा प्रभाव डाला है। इस सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत का अध्ययन दोनों देशों के ऐतिहासिक संबंधों को और अधिक प्रगाढ़ करने में सहायक होगा।  उज़्बेकिस्तान में बॉलीवुड फिल्में और संगीत बेहद लोकप्रिय हैं।भारतीय फिल्मों ने उज़्बेक समाज में पारिवारिक मूल्यों और प्रेम कहानियों को प्रभावित किया है। भारतीय फिल्म उद्योग और उज़्बेक फिल्म निर्माताओं के बीच सहयोग बढ़ा है। 

                      भारतीय और उज़्बेक भोजन में कई समानताएँ हैं। दोनों देशों में चावल, गेहूं, मसाले और मांस का उपयोग किया जाता है। उज़्बेकिस्तान का पारंपरिक व्यंजन "प्लोव" (जो भारतीय बिरयानी/पुलाव के समान है) बहुत लोकप्रिय है। इसके अलावा, समोसा (उज़्बेक भाषा में "सामसा") और नान (भारतीय नान के समान) भी दोनों देशों में पसंद किए जाते हैं। मसालों का उपयोग भी दोनों देशों की रसोई में विशेष स्थान रखता है।भारत और उज़्बेकिस्तान में मनाए जाने वाले त्योहारों में भी अद्भुत समानताएँ हैं। "नवरोज़" (फारसी नववर्ष) भारत और उज़्बेकिस्तान दोनों में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यह वसंत के आगमन का प्रतीक है और इसमें पारंपरिक संगीत, नृत्य और पकवानों का विशेष महत्व होता है। भारत में होली और उज़्बेकिस्तान के वसंत महोत्सव के बीच रंगों के उत्सव का साम्य देखा जा सकता है। शादी-विवाह की परंपराएँ भी काफी हद तक एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं, जहाँ परिवार और समाज की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।उज़्बेकिस्तान और भारत के धार्मिक और आध्यात्मिक संबंध भी गहरे हैं। बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण उज़्बेकिस्तान में कई बौद्ध स्थल पाए जाते हैं। इस्लाम के आगमन के बाद, सूफी परंपरा दोनों देशों में विकसित हुई। भारत में अजमेर शरीफ और उज़्बेकिस्तान में बुखारा और समरकंद के सूफी संतों की दरगाहें आज भी लोगों की आस्था का केंद्र हैं।

             समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि भारत और उज़्बेकिस्तान के संबंध सदियों पुराने हैं, जो ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक आदान-प्रदान से जुड़े हुए हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा ने उज़्बेकिस्तान में गहरी छाप छोड़ी है, खासकर बौद्ध धर्म, योग, आयुर्वेद, दर्शन और भाषा के माध्यम से। प्राचीन काल में, सिल्क रूट के ज़रिए भारत और मध्य एशिया के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संवाद स्थापित हुआ। मध्यकालीन युग में संस्कृत, फारसी और अरबी के विद्वानों ने ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान दिया। सूफी संतों  ने भारतीय आध्यात्मिकता पर गहरा प्रभाव डाला। आधुनिक समय में, भारत और उज़्बेकिस्तान के बीच शैक्षिक और सांस्कृतिक सहयोग जारी है। भारतीय योग, आयुर्वेद और हिंदी भाषा को लेकर उज़्बेकिस्तान में उत्साह है, वहीं उज़्बेक शास्त्रीय संगीत और कला भारत में भी लोकप्रिय हो रहे हैं। इस प्रकार, भारतीय ज्ञान परंपरा और उज़्बेकिस्तान के बीच संबंध ऐतिहासिक बंधनों, शैक्षिक योगदान और सांस्कृतिक मेलजोल से जुड़े हैं, जो आज भी आपसी सहयोग और समृद्धि को बढ़ावा देते हैं।

 

 

                                                                                               डॉ.मनीष कुमार मिश्रा

विजिटिंग प्रोफ़ेसर

ICCR हिन्दी चेयर

ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज़

ताशकंद , उज़्बेकिस्तान

 

 

 

 

 

 

संदर्भ सूची :

1.        Indian Knowledge Systems, Volume – 1, Editors Kapil Kapoor, Avadhesh Kumar Sing, INDIAN INSTITUTE OF ADVANCED STUDY, Shimla,  D.K. PRINTWORLD (P) LTD. New Delhi

1.https://www.lkouniv.ac.in/site/writereaddata/siteContent/202004120632194475nishi_Indian_Knowledge_Systems.pdf

2.        International Peer Reviewed Edited Book on INDIAN KNOWLEDGE SYSTEMS Editor-in-Chief DR. DILIPKUMAR A. OD, DR. MANASI S. KURTKOTI, RED’SHINE PUBLICATION 62/5834 Harplingegränd 110, LGH 1103. Älvsjö, 12573 Stockholm, Sweden, Editors, 2024

3.        Indian Knowledge System,Dr. Rajesh Timane1,Dr. Priyanka Wandhe2,Head, MBA Department1,Assistant Professor, MBA Department2, Dr. Panjabrao Deshmukh Institute of Management Technology and Research, Dhanwate National College, Nagpur, © 2024 JETIR February 2024, Volume 11, Issue 2 www.jetir.org (ISSN-2349-5162) https://www.jetir.org/papers/JETIR2402475.pdf

4.        https://www.education.gov.in/nep/indian-knowledge-systems

5.        https://openlibrary.org/works/OL28345694W/Introduction_to_Indian_Knowledge_System

6.        https://www.academia.edu/119981256/Life_Skills_and_the_Indian_Knowledge_System_Integrating_Ancient_Wisdom_with_Modern_Development

7.        Friedrich Max Muller: The six Systems of Indian Philosophy; Publisher, University Press of the Pacific, September,5, 2003.

8.        https://iksindia.org/

9.        भारतीय ज्ञान परंपरा व शोध-डॉ॰ मुकेश जैन, पद सहायक आचायय(संस्कृत), पदस्थापन राजकीय महाविद्यालय बाड़मेर (राजस्थान, अनुकर्ष:  ISSN : 2583-2948, https://www.alliance.edu.in/anukarsh/archives/vol-2-issue-3/hi/mukesh-jain-lekh.pdf

10.     https://www.researchgate.net/publication/382279056_bharatiya_jnana_parampara_evam_sanskrti_parampara_aura_dharohara_ka_gaurava

11.     भारतीय ज्ञान परंपरा का भू-सांस्कृतिक और सभ्यतागत संदर्भ- प्रोफ़ेसर रविंदर सिंह, फ़ेलो IIAS शिमला, https://www.researchgate.net/publication/375423584_bharatiya_jnana_parampara_ka_bhu-sanskrtika_aura_sabhyatagata_sandarbha