रविवार, 21 सितंबर 2025

मध्य एशिया : साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य और हिन्दी विषय पर दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद सम्पन्न ।

 प्रेस रिपोर्ट

मध्य एशिया : साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य और हिन्दी विषय पर दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद सम्पन्न ।

कल्याण (महाराष्ट्र), 22 सितम्बर 2025।

के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय, कल्याण तथा इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सेंट्रल एशियन स्ट्डीज (समरकंद, उज्बेकिस्तान) एवं अल्फ़रांगस यूनिवर्सिटी, ताशकंद के संयुक्त तत्वावधान में 20–21 सितम्बर 2025 को “मध्य एशिया : साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य और हिन्दी” विषय पर दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय ऑनलाइन परिसंवाद सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। जूम प्लेटफॉर्म पर आयोजित इस परिसंवाद में भारत, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस सहित विभिन्न देशों से 80 से अधिक विद्वानों, शोधार्थियों और शिक्षकों ने भाग लेकर अपने विचार एवं शोध प्रस्तुत किए।

उद्घाटन सत्र का संचालन परिसंवाद संयोजक डॉ. मनीष कुमार मिश्रा (सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, के. एम. अग्रवाल महाविद्यालय) ने किया। स्वागत भाषण श्री एवरन रुतबिल (निदेशक, IICAS, समरकंद) ने दिया। प्राचार्य डॉ. अनीता मन्ना ने संस्थान की ओर से संदेश दिया। बीजवक्ता प्रो. (डॉ.) रवीन्द्र सिंह (दयाल सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय) रहे। विशिष्ट अतिथियों में प्रो. (डॉ.) रामकांत द्विवेदी (MERI, नई दिल्ली) और वरिष्ठ इन्डोलॉजिस्ट श्री रहमतव बायोत (ताशकंद विश्वविद्यालय) शामिल थे। आभार प्रदर्शन डॉ. पुलातोव शेरदोर नेमत्ज़ोनोविच (अल्फ़रांगस विश्वविद्यालय) ने किया।

परिसंवाद में कुल पांच तकनीकी सत्र आयोजित हुए, जिनमें हिन्दी साहित्य और मध्य एशिया की परंपराओं, सूफ़ी और बौद्ध साहित्य, भारतीय स्थापत्य, संगीत एवं नृत्य, बॉलीवुड और सांस्कृतिक कूटनीति जैसे विविध विषयों पर शोधपत्र प्रस्तुत किए गए।

प्रमुख वक्ताओं में प्रो. नोज़िम गफ्फारोविच, डॉ. सुशांत कुमार दुबे, सोनिया राठौर, डॉ. सत्यवान माने, डॉ. रूपेश दुबे, गुलज़बीन अख़्तर अंसारी, डॉ. नवीन कुमार, मंजना कुमारी, प्रो. वंदना पुनिया, डॉ. रीता मिश्रा, डॉ. वैशाली पाटिल, डॉ. किरण चव्हाण, डॉ. अनुराधा शुक्ला, डॉ. उषा आलोक दुबे, डॉ. रीना सिंह, कमोला अहमदोवा, डॉ. कल्पना, डॉ. सुनीता क्षीरसागर, डॉ. हर्षा त्रिवेदी, डॉ. नवल पाल प्रभाकर दिनकर आदि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय रहे।

21 सितम्बर को आयोजित समापन सत्र में विशिष्ट अतिथि सुश्री कमाक्षी वासन (ग्लोबल COO एवं एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, टिलोट्टोमा फाउंडेशन) ने संबोधित किया। विभिन्न देशों के प्रतिभागियों ने अपनी प्रतिक्रियाओं में इस परिसंवाद को “भारत–मध्य एशिया संबंधों की नई दिशा” बताया। आभार ज्ञापन डॉ. मनीष कुमार मिश्रा एवं प्रो. परवीन कुमार ने किया।

यह अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद भारत और मध्य एशिया की साझी सांस्कृतिक धरोहर को सामने लाने वाला रहा। भाषा, साहित्य, संगीत, स्थापत्य और कूटनीति जैसे विविध पहलुओं पर हुए संवाद ने भविष्य के सहयोग और शोध की संभावनाओं को नई दिशा प्रदान की। इस आयोजन के साथ ही के एम अग्रवाल महाविद्यालय का हिन्दी महोत्सव 2025 कार्यक्रम संपन्न हुआ।






गुरुवार, 28 अगस्त 2025

ताशकंद: एक शहर रहमतों का


 डॉ. मनीष कुमार मिश्रा को उज़्बेकिस्तान की स्मृतियों पर केंद्रित उनके कविता संग्रह "ताशकंद एक शहर रहमतों का" के प्रकाशन के लिए बधाई । हर कविता का जन्म किसी न किसी गहरे जीवनानुभव से जुड़ा होता है। कवि जब अपने जीवन की ठोस अनुभूतियों, संवेदनाओं और स्मृतियों को भाषा देता है, तभी वे काव्य की शक्ल ले पाती हैं। प्रस्तुत कविता–संग्रह “ताशकंद – एक शहर रहमतों का” इस सत्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह संग्रह केवल कविताओं का संचय भर नहीं है, बल्कि एक जीवंत यात्रा–वृत्तांत सा है, जहाँ अनुभव, आत्मीयता, प्रेम, स्नेह और सांस्कृतिक संवाद एकाकार होकर इन कविताओं की शक्ल में ढल गए हैं।


ताशकंद, मध्य एशिया का एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगर, अनेक साम्राज्यों का साक्षी । सोवियत और उत्तर–सोवियत परिवर्तनों से गुजरे हुए इस नगर में कवि ने लगभग डेढ़ वर्ष बिताए। उस अवधि में उन्होंने न केवल ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज विश्वविद्यालय में हिन्दी का अध्यापन किया, बल्कि उज़्बेकी समाज, संस्कृति और वातावरण को आत्मसात भी किया। अब कवि के लिए ताशकंद केवल एक नगर नहीं रहा, बल्कि वह उनके लिए स्मृति, आत्मीयता, जीवन–अनुभव और रचनात्मक प्रेरणा का स्रोत बन गया है। यही कारण है कि इस संग्रह की प्रत्येक कविता में एक आत्मीय स्वर सुनाई देता है। कहीं लाल बहादुर शास्त्री की स्मृति है, कहीं नवरोज़ का उल्लास; कहीं बर्फ़ की झरती परतों में प्रेम का दार्शनिक अर्थ उद्घाटित होता है तो कहीं समसा और चायखाना सभ्यताओं के मेल का प्रतीक बन जाते हैं।

Central Asia: Literary, Cultural Scenario and Hindi


 

Two days online international Conference

 International Institute of Central Asian Studies (IICAS), Samarkand, Uzbekistan

(by UNESCO Silk Road Programme )

Alfraganus University, Tashkent, Uzbekistan

and

Hindi Department, K.M.Agarwal Arts, Commerce and Science College, Kalyan (West)

Maharashtra, India

jointly organising

Two Day Online International Conference

*Central Asia: Literary, Cultural Scenario and Hindi*

(Date : *Saturday-Sunday 20-21 September, 2025)*

https://forms.gle/a1LppLVbiwF4JsbH8


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गुरुवार, 3 जुलाई 2025

दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज और अमरकांत का साहित्य (जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में )

 दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद

निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज और अमरकांत का साहित्य

(जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में )

दिनांक : 16-17 जनवरी 2026

प्रस्तावना :

           हिंदी कथा-साहित्य में यथार्थवाद की सशक्त परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कथाकारों में अमरकांत एक ऐसा नाम हैं जिन्होंने निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज की संवेदी बनावटअंतर्विरोधसंघर्ष और मूल्यगत विघटन को सघनता और ईमानदार दृष्टि से प्रस्तुत किया। उनके पात्र कोई 'विशिष्टया 'विलक्षणव्यक्ति नहींबल्कि वही सामान्य जन हैं जो भारत की सड़कोंगलियोंमोहल्लोंचाय की दुकानों और सरकारी दफ्तरों में जीते हैं — थकते हैंलड़ते हैंहारते हैं और फिर उठते हैं।

         अमरकांत की कहानियाँ— जैसे “दोपहर का भोजन”, “जिंदगी और जोंक”, “हत्यारे” आदि — भारतीय समाज के उस वर्ग की प्रतीकात्मक जीवन-गाथाएँ हैं जिन्हें न तो साहित्य में पर्याप्त स्थान मिला और न ही सामाजिक विमर्श में कोई खास आवाज। यह वर्ग आर्थिक रूप से सीमितसांस्कृतिक रूप से जूझता हुआ और नैतिकता के संकट से घिरा हुआ हैपरंतु फिर भी संवेदनाश्रम और स्वाभिमान के बल पर अपने जीवन को जीने की कोशिश करता है। अमरकांत ने इसी वर्ग के भीतर की अदृश्य वेदना और प्रतिरोध को अपनी लेखनी से उजागर किया।

इस दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का उद्देश्य है :

·         अमरकांत की साहित्यिक दृष्टि को सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में समझना ।

·         निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज की समस्याओं और चेतना का गहन विश्लेषण करना ।

·          यह जानना कि वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अमरकांत का साहित्य कितना प्रासंगिक और मार्गदर्शक है।

               आज जब भारत तेज़ी से आर्थिक वर्गों के पुनर्गठन और शहरीकरण के दौर से गुजर रहा हैतब यह अत्यंत आवश्यक है कि हम उस साहित्य को पुनर्पाठ करें जो भारतीय समाज की बुनियादी परतों को उजागर करता है — नारेबाज़ी से दूरआत्मा के निकट। इस परिसंवाद में देशभर के साहित्यकारआलोचकसमाजशास्त्रीशोधार्थी और हिंदीप्रेमी अमरकांत के साहित्य और उनके समाज दृष्टिकोण पर विचार-विमर्श करेंगे। यह न केवल अमरकांत को शताब्दी वर्ष की श्रद्धांजलि होगीबल्कि हिंदी साहित्य को सामाजिक नीतियों और मानवीय दृष्टिकोण से जोड़ने का एक सार्थक प्रयास भी।

आलेख लिखने हेतु  उप विषय :

  1. अमरकांत की कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय मनोविज्ञान
  2. जिंदगी और जोंक’ और 'हत्यारेजैसे पात्रों के माध्यम से सामाजिक अन्याय की पड़ताल
  3. आर्थिक संकट और नैतिक द्वंद्व: अमरकांत के पात्रों की आंतरिक संघर्ष गाथा
  4. अमरकांत और प्रेमचंद: यथार्थवादी परंपरा का विकास
  5. नारी और निम्न मध्यवर्ग: अमरकांत की कहानियों में स्त्री संवेदना
  6. शहरीकरणबेरोजगारी और विस्थापन का चित्रण
  7. अमरकांत की दृष्टि में सांप्रदायिकता और सामाजिक तटस्थता
  8. हिंदी कथा साहित्य में 'सामान्यजनका उद्भव: अमरकांत के संदर्भ में
  9. विकास और मूल्यहीनता के बीच फंसा समाज: अमरकांत की दृष्टि से
  10. वर्तमान कहानी लेखन में अमरकांत की छाया और प्रभाव
  11. कहानी में भाषा और शैली: अमरकांत की सहजता और कथ्य की प्रामाणिकता
  12. हाशिए के लोगहाशिए की भाषा: अमरकांत और सामाजिक समरसता
  13. नवउदारवादी समय में अमरकांत का साहित्यिक प्रतिरोध
  14. पत्रकारिता से साहित्य तक: अमरकांत की वैचारिक यात्रा
  15. अमरकांत की कहानियों का दृश्यात्मक विश्लेषण: रंगमंच और फिल्म संभावनाएं
  16. “निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज और अमरकांत का साहित्य”
  17. नारी और निम्न मध्यवर्ग: अमरकांत की कहानियों में स्त्री संवेदना
  18. शहरीकरणबेरोजगारी और विस्थापन का चित्रण
  19. अमरकांत की दृष्टि में सांप्रदायिकता और सामाजिक तटस्थता
  20. हिंदी कथा साहित्य में 'सामान्यजनका उद्भव: अमरकांत के संदर्भ में
  21. विकास और मूल्यहीनता के बीच फंसा समाज: अमरकांत की दृष्टि से
  22. वर्तमान कहानी लेखन में अमरकांत की छाया और प्रभाव
  23. कहानी में भाषा और शैली: अमरकांत की सहजता और कथ्य की प्रामाणिकता
  24. हाशिए के लोगहाशिए की भाषा: अमरकांत और सामाजिक समरसता
  25. अमरकांत की कहानियाँ 
  26. अमरकांत के उपन्यास 
  27. अमरकांत का बाल साहित्य 
      आलेख  10 अक्टूबर 2025 तक manishmuntazir@gmail.com पर भेजे जा सकते हैं । 
       आलेख यूनिकोड मंगल फॉन्ट में ही भेजें । 
      आलेख की word फ़ाइल भेजें ना कि pdf .
      चुने हुए आलेखों को ISBN पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाएगा । 

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा 
8090100900 
                                

अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष

 


 

 

 

 













अमरकांत : जन्म शताब्दी वर्ष

डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

प्रभारी – हिन्दी विभाग

के एम अग्रवाल कॉलेज , कल्याण पश्चिम

महाराष्ट्र

 

 

             उत्तर प्रदेश के सबसे पूर्वी जिले बलिया में एक तहसील है - ‘रसड़ा’। इस रसड़ा तहसील के सुपरिचित गाँव ‘नगरा’ से सटा हुआ एक छोटा सा गाँव और है। यह गाँव है - ‘भगमलपुर’। देखने में यह गाँव नगरा गाँव का टोला लगता है।भगमलपुर गाँव तीन टोलों में बँटा है। उत्तर दिशा की तरफ का टोला यादवों (अहीरों) का टोला है तो दक्षिण में दलितों का टोला (चमरटोली)। इन दोनों टोलों के ठीक बीच में कायस्थों के तीन परिवार थे। ये तीनों घर एक ही कायस्थ पूर्वज से संबद्ध, कालांतर में तीन टुकड़ों में विभक्त होकर वहीं रह रहे थे।

            इन्हीं कायस्थ परिवारों में से एक परिवार था सीताराम वर्मा व अनन्ती देवी का। इन्हीं के पुत्र के रूप में 1 जुलाई 1925 को अमरकांत का जन्म हुआ। अमरकांत का नाम श्रीराम रखा गया। इनके खानदान में लोग अपने नाम के साथ ‘लाल’ लगाते थे। अतः अमरकांत का भी नाम ‘श्रीराम लाल’ हो गया। बचपन में ही किसी साधू-महात्मा द्वारा अमरकांत का एक और नाम रखा गया था। वह नाम था - ‘अमरनाथ’। यह नाम अधिक प्रचलित तो ना हो सका, किंतु स्वयं श्रीराम लाल को इस नाम के प्रति आसक्ति हो गयी। इसलिए उन्होंने कुछ परिवर्तन करके अपना नाम ‘अमरकांत’ रख लिया। उनकी साहित्यिक कृतियाँ इसी नाम से प्रसिद्ध हुई।

         सन 1946 ई. में अमरकांत ने बलिया के सतीशचन्द्र इन्टर कॉलेज से इन्टरमीडियेट की पढ़ाई पूरी की और बाद में बी.ए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से करने लगे। बी.ए. करने के बाद अमरकांत ने पढ़ाई बंद कर नौकरी की तलाश शुरू कर दी। कोई सरकारी नौकरी करने के बदले उन्होंने पत्रकार बनने का निश्चय कर लिया था। उनके अंदर यह विश्वास बैठ गया था कि हिंदी सेवा पर्याय है देश सेवा का। वैसे अमरकांत के मन में राजनीति के प्रति एक तरह का निराशा का भाव भी आ गया था। यह भी एक कारण था जिसकी वजह से अमरकांत पत्रकारिता की तरफ मुडे़। अमरकांत के चाचा उन दिनों आगरा में रहते थे। उन्हीं के प्रयास से दैनिक ‘सैनिक’ में अमरकांत को नौकरी मिल गयी। इस तरह अमरकांत के शिक्षा ग्रहण करने का क्रम समाप्त हुआ और नौकरी का क्रम प्रारंभ हुआ।

        अमरकांत का रचनात्मक जीवन अपनी पूरी गंभीरता के साथ प्रारंभ हुआ। जिन साहित्यकारों को अब तक वे पढ़ते थे या अपने कल्पना लोक में देखते थे उन्हीं के बीच स्वयं को पाकर अत्यंत प्रसन्न हुए। पत्र-पत्रिकाओं में नौकरी का क्रम भी प्रारंभ हो गया था। लेकिन सन 1954 में अमरकांत हृदय रोग के कारण बीमार पड़े और नौकरी छोड़कर लखनऊ चले गये। एक बार फिर निराशा ने उन्हें घेर लिया। अब उन्हें अपने जीवन से कोई उम्मीद नहीं रही। पर लिखने की आग कहीं न कहीं अंदर दबी हुई थी अतः उन्होनें लिखना प्रारंभ किया और उनका यह कार्य आज भी जारी है।

 

        अमरकांत अपने समय और उसमें घटित होने वाले हर महत्वपूर्ण परिवर्तन से जुड़े रहे। उन्होंने जो देखा, समझा और जो सोचा उसी को अपनी कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। उनकी कहानियाँ एक तरह से ‘दायित्वबोध’ की कहानियाँ कही जा सकती हैं। यह ‘दायित्वबोध’ ही उन्हें प्रेमचंद की परंपरा से भी जोड़ता है। अमरकांत ने अपने जीवन और वातावरण को जोड़कर ही अपने कथाकार व्यक्तित्व की रचना की है। अमरकांत अपने समकालीन कहानीकारों से अलग होते हुए भी प्रतिभा के मामले में कहीं भी कम नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व किसी भी प्रकार की नकल से नहीं उपजा है। उन्होंने जिन परिस्थितियों में अपना जीवन जिया उसी से उनका व्यक्तित्व बनता चला गया। और उन्होंने जीवन में जो भी किया उसी को पूरी ईमानदारी से अपने लेखन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न भी किया। इसलिए अमरकांत के व्यक्तित्व को निर्मित करने वाले घटक तत्वों पर विचार करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उनका व्यक्तित्व आरंभ से लेकर अब तक एक ऊर्ध्वगामी प्रक्रिया का परिणाम है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को किसी निश्चित योजना अथवा आग्रह के आधार पर विकसित न करके जीवन के व्यावहारिक अनुभव द्वारा आकारित किया। सारांशतः उनका व्यक्तित्व अनुभव सिद्ध व्यक्ति का व्यावहारिक संगठन है। यही कारण है कि उनमें आत्मनिर्णय, आत्मविश्वास और आत्माभिमान का चरम उत्कर्ष दिखायी पड़ता है।

     अमरकांत अपने ऊपर प्रेमचन्द और अन्य साहित्यकारों का भी प्रभाव स्वीकार करते हैं। उन दिनों अमरकांत के पास सभी साहित्य उपलब्ध नहीं होता था। जो पढ़ने को मिलता उन्हीं का प्रभाव भी पड़ना स्वाभाविक था। उन दिनों शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य उनके लिए उपलब्ध था। घर पर आने वाले ‘चलता पुस्तकालय’ के माध्यम से ही अधिकांश साहित्य उन्हें पढ़ने को मिला था। इन दोनों की ही कहानियों में रोमांटिक तत्व था जिसने अमरकांत को प्रभावित किया।आगे चलकर जब अमरकांत का परिचय प्रेमचंद, अज्ञेय, जैनेन्द्र, इलाचंद जोशी और विश्वसाहित्य से हुआ तो उनके अंदर एक दूसरे तरह की समझ विकसित हुई। रोमांस और आदर्श का प्रभाव उनके ऊपर से कम होने लगा। वैसे इस रोमांस और आदर्श से दूर होने का एक कारण अमरकांत विभाजन के दम पर मिली आज़ादी और उसके बाद हुए भीषण कत्ले आम को भी मानते हैं। अभी तक सभी का उद्देश्य एक ही था और वह था देश की आज़ादी। लेकिन पद, पैसा और प्रतिष्ठा के लालच में लोग अब विभाजन की बात करने लगे थे। इससे आदर्शो के प्रति जो एक भावात्मक जुड़ाव था उसे गहरा धक्का लगा।

            जयप्रकाश नारायण के कांग्रेस पार्टी से अलग होने की बात सुनकर भी अमरकांत को आघात पहुँचा। गोर्की, मोपासा, टॉलस्टॉय, चेखव, दास्टायवस्की, रोम्यारोला, तुर्गनेव, हार्डी, डिकेन्स जैसे लेखकों के साहित्य नें अमरकांत को प्रभावित किया। बी.ए. करने के बाद अमरकांत नौकरी करने आगरा चले आये। यहाँ वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और कई साहित्यकारों से परिचित भी हुए। आगरा के बाद अमरकांत इलाहाबाद चले आये। यहाँ के भी प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। इलाहाबाद आने और यहाँ के प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने से अमरकांत के साहित्यिक संस्कार अधिक पुष्ट हुए। लेखकीय आत्मविश्वास में भी वृद्धि हुई। प्रगतिशील लेखक संघ के लेखकों के साथ विचार विनिमय का भी उनकी रचनाशीलता पर प्रभाव पड़ा। उनकी ग्रहणशीलता का यह वैशिष्ट्या था कि लेखकों के रचनात्मक गुणों को वे आदरपूर्वक स्वीकार करते थे। यह भी लक्षणीय है कि जहाँ उन्होंने अपने समान धर्माओं से प्रभाव ग्रहण किया वहीं उन्हें प्रभावित भी किया। मोहन राकेश, रांगेय राघव, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, कमलेश्वर, केदार, राजनाथ पाण्डेय, मधुरेश, मन्नू भंडारी, मार्कण्डेय, शेखर जोशी, भैरव प्रसाद गुप्त, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, श्रीकांत वर्मा, ज्ञान प्रकाश, सुरेन्द्र वर्मा, विजय चौहान और विश्वनाथ भटेले जैसे कई साहित्यकारों ने अगर अपना प्रभाव अमरकांत पर डाला तो वे भी अमरकांत के साहित्यिक प्रभाव से बच नहीं पाये। समय-समय पर इन सभी ने अमरकांत के साहित्य पर अपनी समीक्षात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है।

       अमरकांत के प्रकाशित  कहानी संग्रह हैं -  जिंदगी और जोक,  देश के लोग, मौत का नगर, मित्र मिलन, कुहासा,  तूफान,  कला प्रेमी, जांच और बच्चे  और प्रतिनिधि कहानियाँ । आप के प्रकाशित उपन्यासों में – सूखा पत्ता, कटीली राह के फूल, इन्हीं हथियारों से, विदा की रात, सुन्नर पांडे की पतोह, काले उजले दिन, सुखजीवी, ग्रामसेविका इत्यादि प्रमुख हैं । अमरकांत को जो प्रमुख पुरस्कार एवम् सम्मान मिले, वे इसप्रकार हैं :- सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, जन-संस्कृति सम्मान, मध्यप्रदेश का ‘अमरकांत कीर्ति’ सम्मान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का सम्मान । उनके उपन्यास इन्हीं हाथों से के लिए उन्हें 2007 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और वर्ष 2009 में व्यास सम्मान मिला। उन्हें वर्ष 2009 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

      सोमवार दिनांक 17 फ़रवरी, 2014  को अमरकांत का इलाहाबाद में निधन हो गया । अमरकांत हमारे समय का वह ‘किरदार’ हैं, जो पाठ्यक्रम में छपकर खत्म नहीं होता, बल्कि हर समय की दीवार पर एक चुप्पी बनकर टंगा रहता है। उनकी कहानियाँ कोई साहित्यिक कारनामा नहीं, बल्कि सामूहिक चेतना की दस्तावेज़ हैं। शताब्दी वर्ष में उन्हें याद करना सिर्फ अतीत का पुनरावलोकन नहीं, वर्तमान को उसकी असहज सच्चाइयों के साथ देख पाने की शक्ति अर्जित करना है।

 

शनिवार, 19 अप्रैल 2025

ताशकंद में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की स्थिति

 ताशकंद में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की स्थिति


                       उज़्बेकिस्तान में हिन्दी अध्ययन अध्यापन की एक समृद्ध परंपरा है। ताशकंद के लाल बहादुर शास्त्री  विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा के आधार पर हिंदी पढ़ाई जाती है जिसकी शुरूआत 1955 के आसपास हुई । पाठशाला क्रमांक 24/ मकतब 24 प्रसिद्ध लेखक दिमित्रोव के नाम से ताशकंद में शुरू हुआ । सन 1972 में इसका नाम बदलकर लाल बहादुर शास्‍त्री विद्यालय किया गया। यहाँ कक्षा 5 से ही हिन्दी का अध्यापन होता है । इस विद्यालय में लगभग 1400 विद्यार्थी हैं जिनमें से  लगभग 800 विद्यार्थी यहाँ हिन्दी सीखते हैं । सिर्फ हिन्दी पढ़ाने के लिए यहाँ वर्तमान  में  07 शिक्षक कार्यरत हैं । इस विद्यालय की वर्तमान डायरेक्टर नोसिरोवा दिलदोरा यहाँ की हिन्दी शिक्षिका भी हैं । अन्य शिक्षकों में अब्दुर्राहमनोवा निगोरा, तोजीमुरुदोवा सुरइयो, तुर्दीओहूननोबा, कुरबानोवा ओजोदा और मिर्ज़ायूरादोवा मफ़ूजा शामिल हैं । लाल बहादुर शास्त्री विद्यालय, ताशकंद संभवतः न केवल उज़्बेकिस्तान अपितु पूरे मध्य एशिया में हिंदी अध्ययन अध्यापन का सबसे बड़ा केंद्र है ।
                         इस विद्यालय के हिन्दी छात्रों को हिंदी भाषा रुचिपुर्ण तरीके से सिखाने के लिए पाठ्य सामग्री को लगातार नए स्वरूप में तैयार करने का कार्य चलता रहता  है। नवीनतम बदलाव वर्ष 2‌021 में किया गया ।  सभी कक्षाओं की (कक्षा 5 से 11 तक ) किताबों को बदलने‌ का का‌म स्कूल के‌ शिक्षकों  तथा ताशकंद स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीस्ज के वरिष्ठ इंडोलजिस्ट की मदद व सुझाव से पाठ्य‌ पुस्तक समिति ने ‌कि‌या। इन किताबों के प्रकाशन के लिए भी भारतीय दूतावास आर्थिक सहायता देता रहता है ।
              ताशकंद में हिन्दी अध्ययन अध्यापन से जुड़े लाल बहादुर शास्त्री स्कूल, ताशकंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज, द यूनिवर्सिटी ऑफ वर्ड इकॉनमी अँड डिप्लोमसी तथा उज़्बेकिस्तान स्टेट वर्ड लैंगवेजेज़ यूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई जाती है । विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी में स्नातक, परास्नातक और PhD करने की व्यवस्था ताशकंद स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में है । यहां करीब 12 प्राध्यापक हिन्दी अध्यापन कार्य से जुड़े हैं। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद (ICCR) के हिन्दी चेयर के माध्यम से भारतीय प्राध्यापक भी यहां विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य करते रहे हैं। वर्तमान में डॉ मनीष कुमार मिश्रा यहां हिन्दी चेयर पर कार्यरत हैं। डॉ.निलूफर खोजाएवा, प्रो.उल्फतखान मुहिबोवा, डॉ.तमारा खोजाएवा, डॉ.सिराजुद्दीन नुरमातोव, डॉ.मुखलिसा शराहमेतोवा और डॉ.कमोला रहमतजानोवा जैसे उज़्बेकी हिन्दी प्राध्यापकों का हिन्दी के प्रति समर्पण महत्वपूर्ण है।
                वर्तमान में करीब 200 छात्र अकेले इसी विश्वविद्यालय में हिंदी सीख रहे हैं।  इसके अतिरिक्त द यूनिवर्सिटी ऑफ वर्ड इकॉनमी अँड डिप्लोमसी में करीब 50 तथा उज़्बेकिस्तान स्टेट वर्ड लैंगवेजेज़ यूनिवर्सिटी में भी स्नातक स्तर पर हिन्दी भाषा पढ़ाई जाती है। यहाँ भी लगभग 100 के करीब  हिन्दी के छात्र हैं जो द्वितीय या तृतीय भाषा के रूप में हिन्दी सीखते हैं । लाल बहादुर शास्त्री भारतीय संस्कृति केंद्र, ताशकंद में भी हिंदी अध्ययन की व्यवस्था है। वरिष्ठ हिन्दी प्राध्यापक श्रीमान बयात रहमातोव एवं श्रीमती मुहाय्यो तूरदीआहूनोवा यहां वर्तमान में कार्यरत हैं। उज़्बेकी हिन्दी शब्दकोश के निर्माण में श्रीमान बयात रहमातोव का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

सोमवार, 17 मार्च 2025

ताशकंद के इन फूलों में

 ताशकंद के इन फूलों में केवल मौसम का परिवर्तन नहीं,बल्कि मानव जीवन का दर्शन छिपा है। फूल यहाँ प्रेम, आशा, स्मृति, परिवर्तन और क्षणभंगुरता के प्रतीक हैं।उनकी बहार दिल के भीतर छिपी सूनी जमीन पर भी रंग और सुवास बिखेर जाती है। जैसे थके पथिक को किसी अनजानी जगह अपना गाँव दिख जाए — वही अपनापन, वही मिठास।फूलों की झूमती डालियाँ — जीवन के उतार-चढ़ाव की छवि,कभी तेज़ हवा में झुकतीं, तो कभी सूर्य की ओर मुख उठातीं।उनमें नश्वरता का भी बिंब है —पलभर की खिलावट, फिर मुरझाना,मानो कहती हों, "क्षणिक जीवन में ही सौंदर्य है।"

हवा में तैरती सुगंध — कोई इत्र नहीं,बल्कि बीते समय की स्मृतियाँ, जो अनायास ही मन के बंद दरवाजों को खोल देती हैं।हर फूल — एक कविता, हर पंखुड़ी — एक अधूरी प्रेम-कहानी।फूलों की इस बहार में एक सन्देश छुपा है —

रंग भले अलग हों, खुशबू एक-सी होती है,

जैसे जीवन में विभिन्नता के बावजूद,

मूल में प्रेम, शांति और सुंदरता की गूँज होती है।











ताशकंद में बहारों का आना

 बर्फ़ पिघलते ही दबे पाँव हल्की मुस्कान के साथ मौसम ए बहारा इन फूलों के साथ ताशकंद में दस्तक देने लगा है। गुलाबी ठंड और गुनगुनी धूप सुर्खियों से लबरेज़ हैं। ताशकंद की सरज़मी पर बहारों की क़दमबोशी ऐसी है मानो किसी चित्रकार ने हलके गुलाबी, हरियाले और सुनहरे रंगों की नरम तूलिका से क़ुदरत के कैनवास पर जीवन उकेर दिया हो। लंबी सर्दियों की चुप्पी को तोड़ते हुए हवाओं में मख़मली नरमी घुलने लगती है। चिनार और खुमानी के दरख़्तों पर नई कोपलें मुस्कुरा उठती हैं, और बादाम के फूलों की भीनी महक फ़िज़ाओं में घुलकर एक अल्हड़ नशा पैदा कर देती है। ये बदामशोरी किसे न दीवाना बना दें!

शहर की गलियों में चलते हुए ऐसा लगता है, जैसे हर पत्थर, हर इमारत ने सर्द रातों के थकान को छोड़, नई ऊर्जा ओढ़ ली हो। रंग-बिरंगे फूलों से सजे बाग-बगीचे, नीला आसमान, और दूर बर्फ से ढकी पहाड़ियों के पीछे से झाँकती सुनहरी धूप – सब मिलकर एक ऐसी कविता रचते हैं, जिसकी हर पंक्ति जीवन और उमंग से लबरेज़ है।ताशकंद की धरती पर जब बहार की पहली आहट सुनाई देती है, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे सोई हुई कायनात किसी मीठे स्वप्न से जाग उठी हो। हवा में एक अजीब सी ताजगी घुल जाती है । न सर्दियों की चुभन, न गर्मियों की तपिश — बस एक नर्म, सुरीली ठंडक जो दिल के भीतर तक उतर जाती है।

दरख़्तों की टहनियाँ, जो अब तक नंगेपन का बोझ ढोती थीं, एकाएक हरी चुनर ओढ़ लेती हैं। बादाम, आड़ू और चेरी के फूलों की सफेद और गुलाबी पंखुड़ियाँ हवाओं में तितली बनकर उड़ती हैं। जैसे किसी शायर ने क़लम से हवाओं पर इत्र छिड़क दिया हो।ताशकंद की पथरीली गलियाँ, जिन पर सर्दियों की उदासी जमी थी, अब रंग-बिरंगे फूलों के गलीचों से सजी दिखाई पड़ती हैं।और आसमान? वह तो जैसे खुद अपनी नीली चादर को और भी साफ़ करके ताशकंद पर फैलाता है। दूर की पर्वत श्रृंखलाएँ अपने हिममुकुट के साथ बहार का अभिवादन करती हैं। हर कोना, हर दरख़्त, हर झरोखा एक गीत गाने लगता है — प्रेम का, पुनर्जन्म का, जीवन के पुनः अंकुरित होने का।

बहार सिर्फ मौसम का नाम नहीं, ताशकंद के लिए यह एक नवजीवन का संदेश है – उम्मीदों का, प्रेम का, और नूतन सृजन का प्रतीक। जैसे कोई पुरानी याद नए रंगों में लौट आई हो।बहार ताशकंद में सिर्फ ऋतु नहीं, एक उत्सव है — उम्मीदों का, सौंदर्य का, और मानव आत्मा के पुनरुत्थान का प्रतीक। जैसे प्रकृति खुद अपने गुलदस्ते में रंग भरकर, मानव हृदय को सौंप रही हो।

महान उज़्बेकी कवि अली शेर नवाई की प्रसिद्ध कृति "बहारिस्तान" का यह अंश अकस्मात याद आ गया --


بہار ایلدی، چمن رنگ و بوغا تولدی،

هر شاخه‌دا ینی غنچه تبسم قیلدی.

بلبل نغمه‌سی‌دن گلشن معطر بولدی،

طبیعت‌نین هر رنگی روشن بولدی.


(लिप्यंतरण)

Bahar eldi, chaman rang u bo'ğa toldi,

Har shaxada yangi g'unchha tabassum qildi.

Bulbul nag'masi'dan gulshan muattar bo'ldi,

Tabiatning har rangi ro'shan bo'ldi.

(हिंदी अनुवाद)

बहार आई, चमन रंग और खुशबू से भर गया,

हर शाख पर नई कली मुस्कुराई।

बुलबुल के नग़मे से गुलशन महक उठा,

प्रकृति का हर रंग रोशन हो गया।