उज्बेकिस्तान के महान कवि अली शेर नवाई
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
मीर अली शेर नवाई /नेवई /नवोई को निज़ामिदीन अलशेर नवाई के नाम से भी जाना जाता है । आप का जन्म 09 फरवरी सन 1441 एवं मृत्यु 03 जनवरी सन 1501 में हुई । निज़ामिदीन अलशेर नवाई एक सफल और लोकप्रिय मध्य एशियाई तुर्क राजनीतिज्ञ, रहस्यवादी, भाषाविद्, चित्रकार और कवि थे। चगताई भाषा (पुरानी उज़्बेक) साहित्य के प्रतिनिधि एवं पुरोधा साहित्यकारों में आप गिने जाते हैं । उन्होंने उज़्बेक भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उन्हें व्यापक रूप से उज़्बेक साहित्य का संस्थापक माना जाता है। अली शेर/शिर नवाई का जन्म हेरात में हुआ था। उन्हें आम तौर पर उनके उपनाम नवाई अर्थात 'राग निर्माता'/ "मेलोडिक" या "मेलोडी मेकर" के नाम से भी जाना जाता है। नवाई को तुर्कों का चौसर माना जाता है। नवाई तिमुरिड शासक सुल्तान हुसैन मिर्जा (1438-1506) के करीबी सलाहकार थे। एक राजनेता के रूप में, उन्होंने अपार धन और राजनीतिक शक्ति अर्जित की, लेकिन उन्हें आज एक कवि और कला के संरक्षक के रूप में सबसे ज्यादा याद किया जाता है। फ़ारसी की तुलना में चगताई भाषा को तुर्की साहित्यिक भाषा के रूप में बढ़ावा देने वाले वे पहले व्यक्ति थे। उज़्बेकिस्तान और अन्य तुर्क देशों में कई स्थानों और संस्थानों का नाम अली शेर/ शिर नवाई के नाम पर रखा गया है। नवोई प्रांत, नवोई शहर, उज़्बेकिस्तान का राष्ट्रीय पुस्तकालय का नाम अलीशेर नवोई के नाम पर रखा गया है, अलीशेर नवोई ओपेरा और बैले थिएटर और नवोई हवाई अड्डा - सभी का नाम उनके नाम पर रखा गया है। नवाई की कई ग़ज़लें लोकप्रिय उज़्बेक लोक गीतों का हिस्सा बन गई हैं । एक उदाहरण देखें -
“दिल में जो भी मज़मून पैदा होता है
मैं उसको ज़बान नज़्म में अदा कर देता हूँ
इस नज़म पर लोग अपनी जाँ फ़िदा करके
गुंबद गरदों की जानिब सदा करते हैं ।“1
मीर अली शेर नवाई का जन्म सन 1441 में ‘हेरात’ में हुआ था, जो अब उत्तर-पश्चिमी अफगानिस्तान में है। मीर अली शिर के जीवनकाल के दौरान, हेरात तिमुरिड साम्राज्य की राजधानी थी और मुस्लिम दुनियां में अग्रणी सांस्कृतिक और बौद्धिक केंद्रों में से एक थी । अली शिर तिमुरिड अभिजात वर्ग के चगताई अमीर (या फ़ारसी में मीर) वर्ग से संबंधित थे। उनके पिता, घिया-उद-दीन किचकिना ("द लिटिल"), खुरासान के शासक शाहरुख मिर्जा के महल में एक उच्च पदस्थ अधिकारी के रूप में कार्यरत थे। हालाँकि नवाई के समय के लोगों के लिए आधुनिक मध्य एशियाई जातीय शब्दों के सभी अनुप्रयोग कालानुक्रमिक हैं, कुछ स्रोत मीर अली शिर को एक जातीय उज़्बेक मानते हैं। अली शिर की माँ महल में राजकुमारों की शासनिणी के रूप में कार्य करती थीं। उनके पिता एक समय सब्ज़ावर के गवर्नर के रूप में कार्यरत थे। जब मीर अली शेर युवा थे तब उनकी मृत्यु हो गई और खुरासान के शासक बाबर इब्न-बायसुंकुर उस युवक के संरक्षक बने ।
मीर अली शेर, हुसैन बकराह का सहपाठी था, जो बाद में खुरासान का सुल्तान बना। सन 1447 में शाहरुख की मृत्यु के बाद अस्थिर राजनीतिक स्थिति पैदा होने के बाद अली शेर के परिवार को हेरात से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। सन 1450 के दशक में व्यवस्था बहाल होने के बाद उनका परिवार खुरासान लौट आया। सन1456 में अली शेर और बकराह इब्न-बेसुनकुर के साथ मशहद गए। अगले वर्ष इब्न-बेसुनकुर की मृत्यु हो गई और अली शेर तथा बकराह अलग हो गए। जबकि बकराह ने राजनीतिक शक्ति स्थापित करने की कोशिश की, अली शेर ने मशहद, हेरात और समरकंद में अपनी पढ़ाई की। सन 1468 में अबू सईद की मृत्यु के बाद, हुसैन बकराह ने हेरात में सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। परिणामस्वरूप अली शेर ने उनकी सेवा में शामिल होने के लिए समरकंद छोड़ दिया। बकराह ने खुरासान पर लगभग चालीस वर्षों तक निर्बाध रूप से शासन किया। अली शेर 3 जनवरी सन 1501 को अपनी मृत्यु तक बकराह की सेवा में रहे। उन्हें हेरात में ही दफनाया गया था। उनकी जिस काव्य पंक्ति की अत्यधिक तारीफ़ हुई वह कुछ इस तरह है –
“आरज़ बार छिपने पर आँखों से यूँ आँसू टपके
जैसे तारे नमूदार होते हैं चाँद के छिपने पर ।“2
अली शेर नवाई ने कभी शादी नहीं की। मीर अली शेर ने अपने सुल्तान हुसैन बकराह के सार्वजनिक प्रशासक और सलाहकार के रूप में कार्य किया। वह एक बिल्डर भी था, जिसके बारे में बताया जाता है कि उसने खुरासान में लगभग 370 मस्जिदों, मदरसों, पुस्तकालयों, अस्पतालों, कारवां सराय और अन्य शैक्षिक, पवित्र और धर्मार्थ संस्थानों की स्थापना की, उनका जीर्णोद्धार किया या उन्हें धन दिया। हेरात में, वह 40 कारवां सराय, 17 मस्जिदों, 10 हवेलियों, 9 स्नानागारों, 9 पुलों और 20 तालाबों के निर्माण कार्य के लिए जिम्मेदार था। उनके सबसे प्रसिद्ध निर्माणों में निशापुर (उत्तरपूर्वी ईरान) में 13वीं सदी के रहस्यमय कवि, फरीद अल-दीन अत्तार का मकबरा और हेरात में खलासिया मदरसा शामिल थे। वह हेरात की वास्तुकला में महत्वपूर्ण योगदानकर्ताओं में से एक थे । इसके अलावा, वह विद्वता और कला और पत्रों के प्रवर्तक और संरक्षक, एक संगीतकार, एक सुलेखक, एक चित्रकार और मूर्तिकार थे । उन्होने मुख्य रूप से चगताई भाषा में लिखा और 30 वर्षों की अवधि में 30 रचनाएँ लिखीं, जिसके दौरान चगताई को एक प्रतिष्ठित और अच्छी तरह से सम्मानित साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। नवाई ने फ़ारसी (फ़ानी उपनाम से) और बहुत कम हद तक अरबी और हिंदी में भी लिखा। नवाई की सबसे प्रसिद्ध कविताएँ उनके चार दीवानों या कविता संग्रहों में पाई जाती हैं, जिनकी कुल संख्या लगभग 50,000 छंद है। नवाई ने युवकों को कई जगह संबोधित करते हुए मेहनत करने के लिए कहा । उनका एक शेर देखें –
“उम्र अपनी जाया न कर, मेहनत कर
मेहनत को ही आफ़ियत की कुंजी मान
आदमी को चाहिए वह कमाल हासिल करे
ताकि दुनिया से न उसे उदास जाना पड़े ।“3
अपने मानवीय विचारों एवं दर्शन केंद्रित साहित्यिक चिंतन से नवाई ने तुर्की समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया । अपने सात दीवान और पांच दास्तानों के माध्यम से नवाई आज भी अपने लोगों के दिलों पर राज करते हैं । शांति की स्थापना, आपसी सूझबूझ और मैत्रीपूर्ण संबंधों के साथ अपने राष्ट्र के लिए प्रगति के बेहतर माहौल को बनाने के हिमायती के रूप में भी नवाई को देखा जाता है । मध्य एशिया में जब अरबी और फारसी का बोलबाला था तब अपनी भाषा के लिए सकारात्मकता के साथ संघर्ष करने वाले महान साहित्यकार के रूप में भी नवाई को याद किया जाता है । उन दिनों अरबी को ज्ञान विज्ञान एवं फारसी को काव्य भाषा के रूप में व्यापक स्वीकृति थी । इन्हें राजनीतिक संरक्षण भी था, ऐसे में तुर्की भाषा के पुराने वैभव को वापस लाने का कार्य तिमुरिद शासन काल में नवाई ने किया । खामसा के लोकप्रिय पदों के माध्यम से नवाई ने पुरानी उज़्बेकी भाषा की साहित्यिक भाषा के रूप में एक तरह से प्राण प्रतिष्ठा की । तुर्की जमीन को बिना तलवार के एक करने का उनका यह महान प्रयास था । चीन से लेकर खुरासन, शिराज और तबरीज तक के तुर्की समुदाय को एक भाषा के माध्यम से एक बताना बहुत बड़ी सोच थी । आवाम की चिंता उन्हें हमेशा रही । इस संदर्भ में उनके शेर देखें –
“नफ़ा जितना आवाम को पहुँचे तेरी जात से
तुझे उससे ज़्यादा नफ़ा अपनी सफ़ात से ।’’4
नवाई के समकालीन इतिहासकार दौलत शाह समरकंदी के अनुसार नवाई की लोकप्रियता उन दिनों हिजाज, निशापुर, इशफहान के साथ-साथ अरब के बाहर के देशों में भी खूब थी । उन्होंने फारसी कविता के संरक्षण के लिए भी बड़ा काम किया, जिसकी दखल ‘अबद-अर- रहमान जामी’ ने ली है । राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय पहचान के लिए नवाई ने जो कार्य किए वे अविस्मरणीय हैं । अपने बचपन के साथी और तिमुरिद साम्राज्य के सुल्तान हुसैन बेकरा के प्रति वे न केवल वफादार रहे बल्कि 30 वर्षों तक उनके साथ मिलकर शासन और प्रजा की बेहतरी के लिए कार्य करते रहे । उनके समय में राज्य में शांति बनी रही । पड़ोसी राज्यों से मैत्रीपूर्ण संबंध रहे । विज्ञान, शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में प्रगति हुई । नवाई ने अपने लोगों में सहिष्णुता का व्यापक प्रचार किया । नेकनाम की चिंता उन्हें बराबर रही । वे लिखते भी हैं कि-
“चमन में कोई भी गुल नहीं रहेगा अबद तक
रहे अच्छा यहाँ नाम है सआदत है बेशक ।’’5
नवाई बड़ी संपत्ति के मालिक थे, लेकिन सन 1481 के आसपास उन्होंने लगभग अपनी सारी संपत्ति दान कर दी । उन्होने ने कई मदरसे, अस्पताल, पुल और कांरवा सराय के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । जरूरतमंदों को रोज खाना खिलाना और कपड़े इत्यादि बांटना उनके रोज के कार्य में शामिल था । मेशद में इमाम रजा के बगीचे में स्थित दर-अल-हुफ़ज में वो निर्धारित जगह थी जहां से वह रोज भोजन व कपड़े बांटने का काम करते थे । उनकी आमदनी का एक दूसरा बड़ा हिस्सा विज्ञान और साहित्य से जुड़े अध्ययन अध्यापन पर खर्च होता था । दर्जनों वैज्ञानिकों ने अपने शोध कार्य नवाई की मदद से पूर्ण किए । हिरात में इख़लासिया, खलासिया और निजामिया जैसे मदरसे नवाई के सहयोग से ही निर्मित हुए । यही कारण है की अनेकों साहित्यकारों एवं विद्वानों ने नवाई की प्रशंसा में कुछ न कुछ जरूर लिखा । ऐसे विद्वानों में दौलत शाह समरकंदी, अब्दुल गफूर लारी, सुल्तान अली मसादी और अतुल्ला हुसैनी प्रमुख हैं । नवाई समाज के लोकतांत्रिक मूल्यों एवं स्वरूप पर विश्वास करने वाले व्यक्ति थे । शांति, सौहार्द, प्रेम और मित्रता के भी वे बड़े हिमायती थे । उनका लेखन कार्य मानवीय सोच और रचनात्मकता का जीवंत दस्तावेज है । पूरे विश्व में मानवता का प्रचार प्रसार ही जैसे उनका मुख्य उद्देश्य था । चीन के पूर्वी भाग से वर्तमान इराक, ईरान और तुर्की तक नवाई के साहित्य की चर्चा और सम्मान व्यापक रूप में थी । अपने लिए नवाई ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा लेकिन आवाम के लिए वो कई कई बार फरियाद करने को तैयार थे । वे लिखते भी हैं कि –
“मुझ पर जफ़ा हो सौ बार फ़रियाद करूँ न एक बार
जफ़ा हो क़ौम पर एक बार फ़रियाद करूँ मैं सौ बार ।‘’6
बचपन से ही नवाई को इस्लामी विज्ञान, दर्शन, साहित्य और कला के अध्ययन की तरफ मोडा गया । फ़ाशीह अलदीन निजामी से उन्होंने तर्क की शिक्षा ली तो संगीत सिद्धांतों को ख्वाजा युसूफ बुरखान से सीखा । सिर्फ़ 6 साल की उम्र में उन्हें कुरान याद हो गई थी इसलिए वे इस छोटी उम्र में ‘हाफिज –अल- कुरान’ बने । फारसी कवि कासिम अनवर से उन्होंने तीन-चार साल की उम्र से ही कविता सीखना शुरू किया और सात आठ वर्ष की उम्र तक आते-आते स्वयं कविताएं लिखने लगे । मात्र 13 वर्ष की आयु में उनकी कविताओं के बड़े प्रशंसक बने । मौलाना लुत्फी जैसे बड़े वरिष्ठ उज़्बेकी कवि नवाई के प्रशंसकों में से एक थे । 18 वर्ष की आयु तक वे एक उज़्बेक (चगताई) और फारसी के बड़े कवि के रूप में मशहूर हो चुके थे । वे तुर्की में नवाई और फारसी में फ़ानी उपनाम से लिखते थे । बाहरी चमक धमक को नवाई व्यक्ति की सही पहचान नहीं मानते । इस संदर्भ में वे लिखते हैं कि –
“चमक दमक इंसान की पहचान नहीं है
गुरूर करे जो उस पर इंसान नहीं है ।‘’7
तिमूरीद सल्तनत में वर्तमान ईरान, अफगानिस्तान और तुर्कमेनिस्तान का कुछ हिस्सा मिलकर खुरसान कहलाता था । सन 1456 में नवाई हुसैन बेकरा के साथ मशहद (वर्तमान ईरान) आए । सुल्तान अबू- अल- कासिम बाबर से मिलने । लेकिन इस वर्ष सर्दियों में सुल्तान की मृत्यु हो गई । हुसैन बेकरा सेना जमा करने के लिए वहां से चला गया, लेकिन नवाई वहीं रहते हुए अपने मदरसे की तालीम पूरी करते रहे । सुल्तान अबू- अल- कासिम बाबर के शासन (1452 से 1457) में जो शांति स्थापित हुई थी वह उनके मृत्यु के साथ फिर बिखर गई । सन 1459 में सुल्तान अबू सईद के हिरात आने के बाद नवाई वापस हिरात आ गए । सुल्तान नवाई का सम्मान करते थे । सन 1466 के आसपास नवाई के समरकंद चले जाने का भी जिक्र मिलता है । जहां वे लगभग दो साल तक रहे । उन दिनों समरकंद का शासन सुल्तान अहमद मिर्जा देखते थे जो सुल्तान अबू सईद के बेटे थे । उनके दरबार के सम्मानित लोगों में नवाई भी एक थे । यहां रहते हुए स्थानीय कवियों से नवाई के बड़े अच्छे संबंध रहे । यहां पर वे अपनी तालीम भी जारी रखे हुए थे । यहां रहते हुए उन्होंने अरबी भाषा, तफसीर, कलाम, इतिहास इत्यादि विषयों की गंभीर पढ़ाई की । सन 1469 में सुल्तान अबू सईद मिर्जा इराक की एक सैनिक मुहीम में मारे गए और सुल्तान हुसैन बैकरा हिरात को जीतकर खुरसां में अपना शासन फिर से प्रारंभ किए ।
सुल्तान हुसैन बैकरा नवाई के मित्र थे अतः वे हिरात बुलाए गए और उन्हें शासकीय मुद्राओं की देखरेख या उनके प्रति जिम्मेदारी वाले पद मोहरदार के रूप में नई जिम्मेदारी मिली । वे सन 1471 तक इस पद पर रहे फिर उन्हें ‘अमीर कबीर’ का खिताब देते हुए साहिब दीवान / मंत्रियों के प्रमुख के रूप में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली । इस पद पर रहते हुए नवाई ने राज्य की न्याय प्रणाली, कर प्रणाली, आंतरिक झगड़ों, अन्य राज्यों से संबंध और राज्य की सीमाओं से संबंधित कई महत्वपूर्ण और प्रभावी निर्णय लिए । परिणाम स्वरुप वे इस पूरे क्षेत्र में नाम और शोहरत कमाने में कामयाब रहे । सन 1481 में नवाई ने अपने पद से इस्तीफा देते हुए शेष जीवन धार्मिक एवं शैक्षणिक कार्यों में लगाने का निर्णय लिया । इसी साल उन्होंने अपनी सारी संपत्ति भी दान की जिसका हम पहले जिक्र कर चुके हैं । सन 1481 के बाद उन्होंने अपने रचनात्मक कार्यों को भी गति दी। इसी वर्ष उन्होंने अपना वक़फिया पूरा किया फिर उन्होंने अपने दीवान बदाई-अल-बिदाया को पूरा किया । सन 1481 से 1485 के बीच उन्होंने खमसा दास्तां के माध्यम से अनेकों गज़लें लिखी । सन 1487 में सुल्तान ने नवाई को अस्तराबाद का गवर्नर बना दिया । वहां की समस्याओं का निराकरण करके वे 1488 में वापस हिरात आए । सुल्तान और उनके बेटों के बीच के मनमिटाव को दूर करने में भी नवाई ने अहम भूमिका अदा की । 3 जनवरी सन 1501 में नवाई की मृत्यु हो जाती है । अपने जीवन में कई बार नवाई ने हज पर जाने की इच्छा जारी की थी लेकिन सुल्तान ने परिस्थितियों का हवाला देकर उन्हें रोक दिया था । अतः हज करने की उनकी इच्छा पूरी ना हो सकी ।
अपनी कविताओं के माध्यम से नवाई प्रेम, सहिष्णुता, नैतिकता और मातृभूमि के लिए समर्पण की वकालत करते हैं । नवाई की कविताओं पर सूफियों का भी बड़ा प्रभाव दिखाई पड़ता है । ईश्वर और मनुष्य के बीच का प्रेम सही रास्ते पर चलकर ही प्रगाढ़ हो सकता है, इसके लिए मनुष्य को अपनी आत्मा, अपनी चेतना का परिष्कार दया, करुणा, प्रेम, सहिष्णुता, न्याय चेतना और शांति के साथ करने की बात नवाई अपनी कविताओं के माध्यम से करते हैं । उनका जो मनुष्यता का वैश्विक परिप्रेक्ष्य था वह उन्हें व्यापक और बड़ा कवि बनता है । वह पूरे वैश्विक समाज को शिक्षित और उदार बनाने की बात करते हैं । यहां जाति, धर्म संप्रदाय और सरहदों के पार जाने की उनकी सोच उन्हें विश्व कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है ॥ यही व्यापकता थी जिसके साथ में वे ‘अल इंसान अल कामिल’ की बात कर सके । दिव्य प्रेम तथा व्यवहारगत संयम और आत्मा की शुद्धि के माध्यम से मनुष्य अपनी प्राजंलता व परिमार्जन के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है, ऐसा उनका मानना था । स्त्रियों को लेकर उनके विचार बड़े खुले और प्रगतिशील थे । वे स्वयं लिखते हैं कि -
“सैकड़ों बद सीरत मर्दों से
नेक सीरत एक औरत बेहतर है ।“8
नवाई मनुष्य के हृदय को ‘मखजान-ए- इरफाम’ अर्थात ज्ञान का खजाना मानते हैं । इस हृदय में ही सच्चाई बस्ती है । मनुष्य को ‘सत्य की खोज’ की तलाश अपने अंदर से ही करनी चाहिए । इस भौतिक जगत में जीते हुए जानने की लालसा ही मनुष्यता के जीवन को सही रास्ता दिखा सकती है । इस जानने की राह से होते हुए ही हम ईश्वर को जान सकेंगे । प्रकृति का सौंदर्य और उसकी परिपूर्णता हमें ईश्वरी प्रेम की राह दिखाती है । यहीं से दिव्य प्रेम की शुरुआत होती है । प्रेम हमारे हृदय से अहंकार को खत्म करते हुए उस पर कोई रासायनिक प्रभाव डालता है जिससे वह अधिक प्रांजल होकर निकलता है । इसलिए जब तक हम गहराई में नहीं उतरेंगे, हमें मोती नहीं मिलेंगे । नवाई मानते हैं कि किसी व्यक्ति का प्यार अंततः सच्चे प्यार में बदल जाता है और वह ईश्वर की राह में आगे बढ़ता है । नवाई के लिए इंसान से बेहतर कुछ भी नहीं था । उनकी यह पंक्ति देखें -
“तू ने ऐ दिल हूर की तारीफ़ सुनी है
लेकिन इंसान सा कोई नहीं है ।“9
प्रेम के बाद नवाई सुदृढ़ नैतिक नीव को महत्वपूर्ण मानते हैं । जीवन में उनके द्वारा ही श्रेष्ठ मूल्य की स्थापना संभव है । अपनी किताब ‘महबूब अल कुलूब’ में नवाई लिखते हैं कि उनकी उम्मीदें उनके समाज से जुड़ी हुई हैं । उन्होने ने व्यवहार में आडंबर, दंभ और उद्दंडता की घोर निंदा की है । अच्छे कार्य ही जीवन को सफल बनाने वाले कार्य हैं, ऐसा उनका मानना था । किसी व्यक्ति की नैतिकता दूसरे के प्रति उसके आचरण और शब्दों से व्यक्त होती है । इसलिए वे दोस्ताना संबंधों और अपने आचरण पर संयम की बात करते हैं । नवाई की रचनाओं का अँग्रेजी और उर्दू में अनुवाद हुआ है । उर्दू अनुवाद ताश मिर्ज़ा अकादमी, पाकिस्तान द्वारा सन सन 1996 में प्रकाशित हुआ । रहमान वर्दी और मोहम्मद जान ने यह अनुवाद कार्य ‘’अली शेर नवाई : उज्बेकिस्तान के अज़ीम शायर के कलाम का उर्दू तर्जुमा’’ नाम से किया है । इसी पुस्तक से कुछ पंक्तियाँ देखें -
“जाहिर अगर सनम को सज़्दा करूँ तो क्या ऐब
ख़ुद परस्ती से कहीं बेहतर है बुत परस्ती ।“10
“बुलबुल जो गुलिस्ताँ से जुदा हो क्या ख़ुश नवाई करेगी
तोती भी तो शुक सतान से जुदा होकर नहीं बोलती ।“11
नवाई की दृष्टि में एक साधारण व्यक्ति का उच्च नैतिक और बौद्धिक मूल्यों को प्राप्त करना ही जीवन की सफलता है । नवाई मानते हैं कि अच्छे इंसान को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए । झूठ से बुराई पनपती है जो अनैतिकता और अपराध का कारण बनती है । नवाई ने 30 महत्वपूर्ण कृतियों के माध्यम से एक लाख काव्य पंक्तियां लिखी । उनकी गजलें उनके सात दीवानों में संग्रहीत हैं । नवाई उदात्त मानवीय मूल्यों के बड़े रचनाकार हैं । अपनी रचनाओं के माध्यम से वे समाज को नैतिक आचरण और एकनिष्ठता का पाठ पढ़ाते रहे । उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ इसकी गवाही देती हैं -
“अगर मुझे किसी गैर के वस्ल की तमन्ना हो तो ना उम्मीद मर जाऊँ
यही हाल हर गैर का हो जिसको तेरे वस्ल की तमन्ना है ।“12
“गर किसी दूसरे के हुस्न का तमाशा करूँ तो मेरी आँखें फूटें
यही क़िस्मत उस आंख की भी हो जिसको यह तमाशा नसीब हो ।“13
नवाई का सहेजा हुआ हर एक शब्द इतनी शताब्दियों बाद भी उतना ही महत्वपूर्ण बना हुआ है । उनकी कविताओं में मनुष्यता का पनपता और विकसित होता सपना है । इस सपने के लिए नवाई जिंदगी भर रचनाधर्मिता के सफर में सक्रिय रहे । उन्होने अपनी नज़मों के माध्यम से रोशनी से भरी हर संवेदना का दरवाज़ा खटखटाया । पुराने दस्तूर को नई परिस्थितियों में नया रास्ता दिखाया । उनके ख्वाबों की सल्तनत में मानवता और करुणा से बड़ा कुछ भी नहीं था । नवाई की कविताओं में जीवन को दिशा और विश्वास देने की शक्ति है । एक सार्वभौमिक चेतना के साथ वे मनुष्यता को एतबार भरी निगाहों से देखते हैं । वे जिस निखरते हुए समाज को देखना चाहते थे उसके निखार के लिए अभी बहुत कुछ शेष है ।
डॉ. मनीष कुमार मिश्रा
विजिटिंग प्रोफ़ेसर(ICCR Chair)
दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व एशियाई भाषा विभाग
ताशकंद राजकीय प्राच्य विश्वविद्यालय
ताशकंद, उज़्बेकिस्तान
मोबाइल – +998503022454
manishmuntazir@gmail.com
संदर्भ :
अली शेर नवाई : उज्बेकिस्तान के अज़ीम शायर के कलाम का उर्दू तर्जुमा - रहमान वर्दी और मोहम्मद जान, ताश मिर्ज़ा अकादमी, पाकिस्तान द्वारा सन सन 1996 में प्रकाशित, पृष्ठ संख्या -14, हिन्दी अनुवाद डॉ. शमा द्वारा ।
वही, पृष्ठ संख्या -13
वही, पृष्ठ संख्या -15
वही, पृष्ठ संख्या -16
वही, पृष्ठ संख्या – 16
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वही, पृष्ठ संख्या – 16
वही, पृष्ठ संख्या – 17
वही, पृष्ठ संख्या - 17
वही, पृष्ठ संख्या – 19
वही, पृष्ठ संख्या – 21
वही, पृष्ठ संख्या – 21
वही, पृष्ठ संख्या – 24
Oybek Navoiy – Translators-I.M.Tukhtasinov, O.M.Muminov, Yangi asr avlodi publication-2016.
https://www.ziyouz.uz/en/uzbek-literature/38-literature-of-temurids-period/63-alisher-navoi-1441-1501
https://www.academia.edu/43518907/Ali_Shir_Navayi_and_the_Rich_World_of_Turkic_Persian_Poetry_An_Interview_with_Nicholas_Walmsley
https://journals.openedition.org/asiecentrale/2791
https://www.academia.edu/5980228/The_Yasaviyya_in_the_Nas%C4%81%CA%BEim_al_ma%E1%B8%A5abba_of_%CA%BFAl%C4%AB_Sh%C4%ABr_Nav%C4%81%CA%BE%C4%AB_A_Case_Study_in_Central_Asian_Hagiography
CONCEPTION OF POLITICAL POWER AND THE TIMURID CULTURAL ACHIEVEMENTS DURING THE REIGN OF SULTAN HUSAYN BAYQARA: A THESIS SUBMITTED TO THE GRADUATE SCHOOL OF SOCIAL SCIENCES OF MIDDLE EAST TECHNICAL UNIVERSITY BY ÖZDEN ERDOĞAN, MAY 2023.
https://www.cambridge.org/core/journals/iranian-studies/article/abs/centralizing-reform-and-its-opponents-in-the-late-timurid-period
Mir Ali Shir Navai the Great by Shuhrat Sir
ujiddinov, Gafur Gulom Nomidagi nashriyat. Matbaqijodiy uyi, 2018, Toshkent.
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